शनिवार, 29 मार्च 2014

सड़क दुर्घटनाएं-कारण और निवारण

सड़क दुर्घटनाएं-कारण और निवारण 

राह चलती जाती है, राहें मिलती जाती हैं
          मंज़िल का पता नहीं , राही का पता नहीं........

सब भागमभाग में व्यस्त हैं , व्यस्तता दिनचर्या का अहम् भाग बन गई है , स्त्री , पुरुष, बच्चे किसी के पास ठहरने के दो छण भी नहीं हैं और किसी हद तक इन्ही का परिणाम है - सड़क दुर्घटनाएं।

राह पर चलता हुआ इंसान मानो कोई कीट पतंगा सा बनकर रह गया है।  न पैदल सुरक्षित है , न दुपहिया और न ही चार पहिये के वाहन में ही। रात के अँधेरे में ट्रक चालक नशे में धुत होकर गाड़ियों पर चढ़कर अपनी मनमानी करते हुए कितने ही बहुमूल्य जीवनो का अंत कर देते हैं।  हालांकि समस्त बस - ट्रक समुदाय अमानवीय नहीं है परन्तु जितनी लापरवाही रात्रि की आकस्मिक दुर्घटनाओ में होती है उसका मुख्य भाग इसी श्रेणी में जाता है।  इनके अलावा सड़क पर खोये हुए लोग भी अपनी लापरवाही से दूसरे के जान माल के नुक्सान का कारण बनते हैं। अगर दुर्घटनाओ के कारणो का ब्यौरा देखे तो अक्सर ग़लती सामने वाले की होती है परन्तु भुगतता है सावधान चालक।  असावधानी हटी दुर्घटना घटी- परन्तु जो असावधानी पूर्वक ही चलाते हैं उनकी करतूत का फल भोगता है कौन…?

एक और कारण यह भी है कि आजकल युवा वर्ग का एक तिहाई भाग अध्ययन और अन्वेषण की बजाय सड़क पर गति की सीमा लांघने का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है… भूल गए हैं ये बच्चे कि कितने  अनमोल है वह अपने परिवार के लिए, अपने जनक जननी के लिए ( - हालांकि सामाजिक योगदान शून्य होता जा रहा है परन्तु फिर भी ) जीवन अमूल्य होता है और एक ही बार एक जीवन मिलता है।  ईश्वर प्रदत्त सबसे अनमोल उपहार है मनुष्य का जीवन क्यूंकि धरा को बनाने और मिटाने में सर्वाधिक योग दान भी उसी का ही है।  पशु पक्षियों की तरह नहीं जी सकते हम , क्योंकि बुद्धि का सर्वोत्तम उपयोग ईश्वर ने हमे ही प्रदान किया है।

सड़क पर होती दुर्घटनाएं अब अखबारों का अधिकतम भाग ले लेती हैं , नतीजतन समाचार पत्र के अंतिम पृष्ठ तक पहुँचते पहुँचते या तो हम निराशा से भर चुके होते हैं या फिर खेद से भरकर बीच में ही रख देते हैं उन पन्नो को मोड़कर रद्दी के लिए।

एक अन्य कारण यत्र -तत्र मकानो व् इमारतों का गिरना भी होता है सड़क पर चलते मनुष्यों की मौत का कारण।  विवादास्पद बहुमंज़िला इमारतें और कच्चे घूस खाये मकान, पुल आदि आपदा के आगमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  हास्यास्पद बात तो यह है कि जीवन की अनिश्चितता हमारी सरकार कुछ लाख रुपयों से खरीद लेती है ; जबकि वो अमूल्य जीवन कितने ही सपने संजोकर धराशाई हो जाता है और पीछे छोड़ जाता है अपनों के लिए शून्यता।

हमे देखना होगा कि गाड़ी  चालकों पर नियंत्रण की सीमा ट्रैफिक पुलिस किस तरह से बढ़ा सकती है , हालांकि हेलमेट की अनिवार्यता तथा मोबाइल पर चलाते हुए बातचीत न  करना एक आवश्यक नियम बना दिया गया है जुर्माने सहित, परन्तु कानून को ताक पर रखना इंसान की फितरत बन चुकी है। परन्तु आशाएं बलवान होती हैं और हम तो यही आशा करेंगे कि स्वनियंत्रण ही सबसे बड़ा समाधान है जिसके लिए प्रत्येक को जागरूक होना पडेगा और हर इंसान को दूसरे राही का मददगार भी बनना होगा आपात की स्थिती में , तभी दुर्घटनाएं कम होंगी और होंगी भी तो बहुमूल्य जीवन नष्ट ना होंगे। इस तरफ कदम बढ़ाएं हम सब…

©Radhika Bhandari







बुधवार, 26 मार्च 2014

तृष्णा

तृष्णा 

इच्छाएं अनंत होती हैं , उनकी कोई सीमा नहीं होती।  ऐसी ही कुछ सोच से प्रेरित होकर जीवन की दौड़ में भाग रहा है मनुष्य।  एक स्थान से दुसरे स्थान पर सदैव गतिमान - शारीरिक व मानसिक रूप से , कहीं भी रुकने को तैयार नहीं है । भाविष्य के सुख की कल्पना में वर्त्तमान की छोटी छोटी आनंदपूर्ण अनुभूतियों से वंचित वो किंचित अग्रसर  है अनबूझे भविष्य के जंजाल में।

हालांकि अस्थिरता के इस युग में यह दौड़ किसी हद तक सार्थक कही जा सकती  है  क्योंकि कल की भौतिक परिस्थितियां किस करवट बैठें यह तो कल्पना से परे है इस दौर में , परन्तु फिर भी यह एक कटु सत्य है कि  जीवन क्षणिक है; इस यथार्थता को स्वीकारते हुए मनुष्य को हर पल को गले लगाना चाहिए न कि  पसीने की बूँद की तरह वर्त्तमान को झटक कर भविष्य को अमृत बूँद मान लेने कि त्रुटि करनी चाहिए।

भागती हुई जिंदगी का एक कड़वा सच यह भी है कि नर व् नारी दोनों ही कल को सजाने में इतने व्यस्त हैं कि एक दूसरे के साथ बिताये हुए पल भावनाशून्य होकर समय की गाडी का पहिया बढ़ा रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगे की  पीढ़ी अर्थात हमारे बुज़ुर्ग एवं पीछे की पीढ़ी अर्थात हमारे नौनिहाल भी एकांत का सामना कर रहे है।  ये एकांत एक राक्षस की तरह अपना विकराल मुख खोले खड़ा है जिसमे चेतना समाहित होती जा रही है।  समय नहीं है किसी के पास , बस भागम भाग और होड़ - शेष यही है जीवन में।

किसी ने क्या खूब कहा है -" कुछ पल तो हमारे साथ चलो, हम अपनी कहानी कह देंगे ,जो बात अभी तक ना समझे , वो बात जुबानी कह  देंगे ".. …  कितना बड़ा सच है जीवन का इन पंक्तियों में , किन्तु प्रश्न यह है कि क्या वक़्त है कहने का कुछ ?? और क्या वक़्त है सुनने का भी  ?? इसी मृगतृष्णा से अपनी अभिलाषाओं की  क्षुधा तृप्त  करने में लगे हैं सब।   इसका असर आने वाली पीढ़ी पर यह पड़  रहा है कि वह निरंकुश हो रही है।  माँ का वात्सल्य लुप्त हो चला है और पिता  का अनुशासन भरा प्रेम- उलाहनाओं में परिवर्तित हो चुका है।

जीवन के चार आश्रमों में से एक था - गृहस्थ आश्रम ; परन्तु जीवन का वास्तविक सत्य यह है कि मनुष्य ने गृहस्थी में ही वानप्रस्थ को समेट  लिया है। आनंद जीवन में अपरिपक्व रूप से उपस्थित है  परन्तु परिपक्वता की  ओर बढ़ने की गर्मी से वंचित हम ही कर रहे है उसे।  धैर्य तत्परता में बदल चला है और आशाएं- आकांक्षाओं में।  इच्छाओं  के बादल छूने को उड़ चला है इंसान धरती को कहीं दूर पीछे छोड़ कर।

©Radhika Bhandari

सोमवार, 17 मार्च 2014

धूप

धूप 

कभी तपिश की तरह तपती
कभी सर्द हवाओं में जरुरत बनती  ...... ये धूप

कभी थके राहगीर  की बंदिश
तो कभी ठिठुरते बच्चे की ख्वाहिश ..... ये धूप

कभी चमचमाती सोने के माफ़िक
कभी बादलों  की ओट से दिखती ....... ये धूप

कभी जर्रे जर्रे पे जल जल के गिरती
कभी ओस की ठंडी बूंदों पे खिलती ..  ये धूप

कभी रेत करती सुनहरी सी झिलमिल
कभी दरिया की लहरें रुपहली सी करती..... ये धूप

कभी ज़लज़ले सी कहर ये बरपाती
कभी शीत हवाओं पर चादर सी पड़ती .. ये धूप

कहीं अगन  है , कहीं सुकून लेकिन
मेरे मन के बर्फीले घावों पर जमकर के बरसी... ये धूप
 ©Radhika Bhandari

 

गौरैया

गौरैया

एक छोटी सी गौरैया आकर मुझको रोज़ हँसाती है
चेहरे की पहली  मुस्कान सी बनकर
जब वो मेरे आँगन में आती है
दाना चुग कर चूँ चूँ करके वो थोडा इठलाती है
फुर्र करके फिर ,,,फिर वो उड़ती दाना लेकर जाती है
रोज़ सवेरे मुझसे उसका क्या रिश्ता हो जाता है
दाना ना रखा हो तो  क्यों, उसका मुँह बन जाता है
फुदक फुदक के इधर उधर वो शरमाती बलखाती है
ज्यों दाना रख दूँ ,,तो चुग के सर्र सर्र उड़ उड़ जाती है
मेरा उस से क्या रिश्ता है ये मुझको मालूम नहीं
पर उसके आने की  चाहत मन को छूकर जाती है
 छोटी सी गौरैया आकर मुझको रोज़ हँसाती है.…।

©Radhika Bhandari

कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी

कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी

रंग कौन लगाये मोहे
हौले हौले  चोरी चोरी
नैनों से  बतियाँ कर ले जो
अधरों में मुस्कान  हो थोरी
लाल हरे नीले रंगों से
सारी कौन भिगोये मोरी
        कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी
मीठी मीठी बातें बोले
और एकदम से बांह मरोरे
भर के अपने आलिंगन में
रंग दे तन की बगिया ये … कोरी
      कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी।।।।।।

©Radhika Bhandari

रविवार, 9 मार्च 2014

ख्वाब

ख्वाब

मै अधूरा सा इक ख्वाब हूँ
जिसे जिन्दगी की तलाश है
जिसे रूप है मिला मगर
किन्ही खुश्बुओं की तलाश है ……

कभी आँख में बंधकर रहा
कभी मन से यूँ ही उतर गया
कभी इस घड़ी कभी उस घड़ी
मेरा कारवाँ सूना गुजर गया ……

कभी आएगा जो वक़्त मेरा
मै इक हकीकत बन जाऊँगा
गूँजता रहे जो जेहन में सबके
मै ऐसी धड़कन बन जाऊँगा ……      
©Radhika Bhandari

दो पंक्तियाँ ( group of two liners)

दो पंक्तियाँ ( multiples)

9. गुजरा बहुत है सफर , दर्दे बारिश भी सही
रस्ते बहुत थे लम्बे , मगर राह थी वही
इक था जूनून दिल में , इक हसरत भी थी पली
पाएंगे अपनी मंज़िल , और अकेले ही बढ़ चली

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8. तुम बोझ नहीं तुम नारी हो
तुम  भार नहीं धरती पर
बल्कि जन जन पर भारी हो

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7. आज मन में जो बात है बड़ी मुददत से
चाहा है रंगों को भरना हमने शिद्दत से
जमीं पे पाँव हैं मगर ये सोच भी ज़िंदा
कहीं आकाश मिले तो उडूं मै चाहत से
कहीं न भूली सफ़र ये तो राहे मंज़िल है
कभी हटेंगे नहीं मंज़िल ऐ इबादत से  …।

………
6. हर दर्द के पीछे कोई राज़ है
टूटते हुए दिल की इक आवाज़ है
गूंजती है सन्नाटों में हर तरफ से जो
नश्तर सा चुभाता इसका हरेक साज़ है ……

.......
5. दर्द को जुनूँ बनाकर हम बढ़ते गए
आसमाँ की जमीं पर बे-होश चढ़ते गए
सोचा कुछ ऐसा कि उसको रहम आ जाए
हर हाल में मौला के सितम सहते गए ……

..........
4. जिंदगी की डोर से जुड़ने की चाहत
मंजिल को ढूंढती
          तमन्नाएँ होकर आहत
कैसी है ये ज़िन्दगी की कसैली कड़वाहट
कोई तो इक पल दे हमको इक पल की राहत ……

…………
3. मौला की मिल्कियत में छाई है मस्ती
ईद की खुशियों से सराबोर है बस्ती
हम बहुत कहते नहीं
सिर्फ फ़रियाद है इतनी
     ना जलाओ आशियाँ सुहाना
        ज़िन्दगी तोहफा है उसका
            नहीं है कीमत इसकी सस्ती। …

………………।
2. पाँव तपते गए
धूप इतनी मिली
कि जमीं का अहसास ही न रहा
हम बढ़ते गए
वक़्त चलता रहा
कि ज़िन्दगी का अहसास ही न रहा …

………………………
1. गर याद न आये
तो इतना काम करो
इक बार तो बस मेरे
प्यार से इंकार करो

………
©Radhika Bhandari


यूँ ही……

यूँ ही……

कभी कभी पीछे मुड़ के देखूं तो
   ये अहसास झिंझोडे है ……
जो पल मैंने बिताये  तुम संग
   वे तो कितने थोड़े हैं ……
छोटी सी खुशियों  से लेकर
   बड़ी बड़ी मुस्कानो तक ……
तुमने कितने सुकूँ भरे पल
    मेरी ज़िन्दगी में जोड़े हैं ……
पर हर पल मुझको ये लगता
     मैं, तुमको क्या दे पाऊँगी
हर मंज़िल पे आकर
    जिसने राह में पाये रोड़े हैं ……


©Radhika Bhandari