शनिवार, 19 अप्रैल 2014

इक रोज़

इक रोज़

इक रोज़ हमने ये सोचा
      आज किसी को हँसाए
थोड़ी सी खुशियां लाकर
          किसी की मुस्कान बनाएँ
निकले जो  देखा, था सामने ,
                 एक बच्चा था खड़ा
 हमने पूछा उससे
           क्यों राह पे है पड़ा ?
वो बोला दीदी हम तो ,
           इस फूटपाथ के ही बच्चे हैं
दुनियादारी  से दूर
          अक्ल से कुछ कच्चे हैं
 जहां ले जाते हालात वहीँ पहुँच जाते हैं
जिस राह पर रोटी मिल जाए
उसी को अपना समझ, वहीं सो जाते हैं
आप यदि देंगी ....... दो रोटी का निवाला  
या  पहनने को कपड़ा
तो हम भी जी लेंगे कुछ और .... यहीं पर
 नहीं तो बढ़ चलेंगे…… क्योंकि छत है आकाश समस्त
और ऊपर वाले ने
           बनाया है हमे जीने के लिए अलमस्त अलमस्त



गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

मेरा अपना

मेरा अपना

इक टूटे किनारे की तरह -
                 जिसके पास है सब कुछ
                  हरियाली , ज़मीन और पानी का बहाव
                   पर सब बेजान , नितांत निर्जन
मैं बैठी उदास।
न हंसने की तमन्ना , न रोने की चाहत
न खोने का ग़म , न पाने की ख़ुशी
कहीं दूर अकेली मैं
               सिमट कर रह गई हूँ
जाने  कितना कुछ सोचा
             न जाने कितना कुछ पाया
                  अहसास की दुनिया में
नाकाम हुई तो बस
                  इंसानो की महफ़िल में
ये दर्द नहीं देता कोई तड़प
        यही तो एक तड़पन है
है प्यास ज़हर की मुझको
        पर ये अमृत का अपनापन है…कि वो मिलता है मुझे खुद से
मैं दूर कहीं  बैठी
           सबसे जुदा जुदा
हैं नज़दीक सभी मेरे
पर पास,  कोई नहीं मेरा
और जिसे चाहती मैं
                    वो दूर.… क़हीं  दूर
क्या है --- कोई मेरा ?

किसी रोज़

किसी रोज़

लफ्ज़ की देके शकल
न बदल दोस्त उन जज़्बातों को
वो तो सीने से निकल कर
          सीने में उतर जाते हैं

पढ़ के तो देख तू मेरे अल्फ़ाज़ों को
ये तो वो शेर हैं जो दिल में उतर जाते हैं

बात होती अगर उन आंसूओं की ही तो
हम छिपा लेते उन्हें दिल के किसी कोने में
बात तो ग़म की है जो सीने में छुपे रहते हैं
और चुपके से किसी रोज़
               बिखर जाते हैं
हमने वादा था किया अश्क न बहाने का
क्या करू दर्द का
            जो आँखों से उतर  आते हैं

पढ़ के तो देख तू मेरे अल्फ़ाज़ों को
ये तो वो शेर हैं जो दिल में उतर जाते हैं 

चाहत

चाहत 

उन भीगे अक्षरों से
            उन सूखे आंसूओं से
उस मन की व्याकुलता को
             उतारने की चाहत
ह्रदय की उस व्यथा को
                 है बांटने की चाहत

कहूँ क्या , कि शब्द अपरिपक्व
मगर मेरा प्रेम संपूर्ण,
         समर्पित
                  और परिपक्व .......
तुम्हारे हर दुःख को
      पा लेने की चाहत
रोम रोम में तुम्हारे
       समाने की चाहत

वो मेरी मुस्कराहट पर तुम्हारा हंसना
और मेरी भीगी आँखों को देख रोना
इसी अंदाज पे फ़िदा
                होने की चाहत
मेरी चाहत असीम अनंत
कब तक व्यक्त ही करुँगी
कि
बस अब तो है तेरी बाहों में आकर
तेरा क़र्ज़ उतारने की चाहत.......  

रविवार, 13 अप्रैल 2014

तुम

तुम 

ना बेवफा न बावफा , कुछ भी नहीं मेरे लिए 
बस एक शख्स हो तुम.……  
                   राहे मुसाफिर की तरह   

जिंदगी का हर पल वीरान है
बस एक तेरा साथ है
                  जो हंसाता है
बस एक तेरा मौन है
                       जो रुलाता है
मेरी भावनाओं के ये दो छोर
बस तेरे ही दम से हैं
वर्ना तो ज़िन्दगी का हर पल
                           नश्तर चुभाता है
तू बोले तो सरगम सी बजती है
तू चुप हो तो आंधी सी चलती है
तू क्या है जो मुझमे समाया है ……
ऐ मेरे हमसफ़र , तू क्या मेरा साया है ????………

याद

याद 

वो स्थिरता जो पाई थी मैंने
एक अर्से के बाद 
उसी धैर्य को खंडित कर 
अपनी स्मृति को जगा गया 
वो तेरी याद का झोंका 
मेरे मन को हिला गया 
वो बात जो एक याद बन चुकी थी 
वो प्यास जो एक आस बन चुकी थी 
उस ह्रदय की बुझी अग्नि को 
छूकर चला गया 
वो तेरी याद का झोंका 
मेरे ह्रदय को जला गया 
तेरी याद ले , आ गया 
मेरे मन को ले ,  चला गया ....... 

आस

आस 

शब्दों के टूटे हुए टुकड़े समेट  कर, हम चले थे 
स्वरों के आकाश नीचे, भावनाओं का जहां बसाने 
अकेले थे अपनी राह पर ,थोड़ा ठहरने की चाह पर 
मगर न कोई साथ था, ना कोई अासरा 
पर हम बढ़ चले थे दुनिया बनाने  … 
तमन्नाएँ बहुत थी, चाहत असीम , अनंत 
पर तुम न थे साथ हमारे 
हम तो मुस्कुरा कर तुम्हारी यादों के सपनो को 
मन के झूले में झुलाकर, चल पड़े थे राह पर 
तुम्हारे लिए खुशियों की सेज़ बिछाने 
मेरे तुम्हारे प्यार का जहां बसाने ………  

विश्वास

विश्वास 

तुझे ढूँढा दूर तक हमने
कभी रिश्तों में, कभी नातों में
कभी प्यार में, कभी दर्द में,
कभी वादों में , कभी इरादों में,
कभी बूँद में, कभी बारिश में,
कभी मुस्कुराहटों की साज़िश में
तुझे ढूँढा दूर तक हमने  .......
कभी प्यास में , कभी आस में,
कभी दूर कहीं, कभी पास में ,
कभी मन मचलता था मेरा
 कोमलता की आस में
कभी दिल पिघलता था मेरा
कठोरता की प्यास में
तुझे ढूँढा दूर तक हमने ……
मगर जानी हकीकत जब
निकल आँसू मेरे आये
कि जिसको खोजती थी मै
वो तो दम तोड़ चुका था
जिसे ढूँढा किये  अब तक
वो एक विश्वास ही तो था …… 
©Radhika Bhandari

They are all gone awy

From an old Diary.....

They are all gone away
there is nothing more to say
These lines when I heard 
made me remeber that world,
the creatures, the weather, 
the mountains, the sky, 
all green with love
with little birds to fly...
Those precious moments 
when I lived with you
I cried with you, I smiled with you;
The feelings we shared
the moments you cared
My sentiments arose
when I felt the fragrance
My joy bud turned to rose
when you showed your presence
I cried with happiness
satisfaction lying in my heart
feeling you are with me
in a new life to start......

©Radhika Bhandari

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

राजदुलारा

राजदुलारा

छोटा सा नन्हा सा, मेरी आँखों का तारा
खुशियों से भर देता मन ,मेरा राजदुलारा
आज उसकी बातों से आया आँखों में पानी
उल्लास  के अश्रुओं ने मेरी एक न मानी
हँसते हँसते रो पडी मैं …रोते रोते हंस दी
मेरी तो जीवन की कहानी उस ने पूरी कर दी
सिमट गई  इक पल में जैसे जीवन की पूरी कहानी
नैनो में चमके मेरे जैसे अमृत सा पानी
माँ बन कर महसूस हुआ मै बनी कहीं की रानी
उसकी मीठी बातों से होती मुझको हैरानी ……

©Radhika Bhandari



अपने

अपने 

अपनों की इस भीड़ में अपने ही  बेगाने हैं
किस से दिल की बात कहें , सब दिल के ही अफ़साने हैं
दिखते नहीं आँखों को नज़ारे जो सपनो में आये
इस हकीकत भरी दुनिया में तो , सब रिश्ते अनजाने  हैं
सपने बुन कर हमने  देखा , तिनके उड़ उड़ जाते हैं
उड़ते उड़ते हमने जाना हम भी तो परवाने हैं
जो हम चाहें हमे मिले वो, ऐसे पल कम आते हैं
गीतों की सरगम ना बने जो, हम ऐसे ही तराने हैं  
©Radhika Bhandari

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

प्रदूषण - कारण और निवारण

प्रदूषण -  कारण और निवारण

बढ़ती आबादी की सबसे विकट व ज्वलंत समस्या है प्रदूषण।  लोग आबाद हो रहे हैं और पर्यावरण बर्बाद।  दिन ब दिन बढ़ती जनसंख्या अपने साथ विस्तार कर रही है जल, वायु, ध्वनि व् भूमि प्रदूषण का। यहां तक की विज्ञान व सामाजिक विषयों में भी हर कक्षा , हर विद्यार्थी को इसकी घातकता समझाई जा रही है।किन्तु प्रश्न ये उठता है कि कितना समझते हैं और कितना पालन करते हैं  लोग।

विज्ञान ने जितनी तेजी से प्रगति करी है उस के परिणामों ने उतना ही गहरा दलदल तैयार किया  है मनुष्य के लिए।  वायु प्रदूषण की सोचें तो जहां तक  दृष्टि डालें धुंआ ही धुंआ , कारखाने और गाड़ियां।  जन जीवन इसी प्रदूषित वायु को अपने फेफड़ों तक जाने दे रहा है और जीवन के वर्षों को अल्प कर रहा है। यही प्रदूषित वायु बुजुर्गों , अजन्मे भ्रूणों , नवजात शिशुओं को अंदर से खोखला कर रही है।  वर्षा के मेघों से घुल मिल कर यही प्रदूषण अम्ल वर्षा में परिवर्तित हो रहा है जो की फसल के साथ साथ हमारी त्वचा के लिए भी हानिकारक है।
स्वच्छ वायु तो कदाचित पुस्तको के पाठ का हिस्सा बन कर ही रह गई है जिसे प्राप्त करना असंभव के समरूप लगता है।  इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाये तो कैसे ? क्यूंकि आबादी , वाहन और कारखाने निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं  और बढ़ रह है उनके द्वारा उत्पन्न धुंआ।  वायु स्वच्छ रहे भी तो किस प्रकार ?

फिर कानो की सोचे तो  ध्वनि तरंगें वातावरण को शोर गुल का मंच बनाती सी लगती हैं।  गाड़ियों के हॉर्न , लाउड स्पीकरों पर बजते संगीत , बढ़ते हुए कौवे - कबूतरों की कांव कांव व गुटर गूं बनती है ध्वनि प्रदूषण का कारण। इसी से बढ़ रही है बधिरता और साथ ही कुछ और सुनने का धैर्य भी।  इंसान आवागमन के रास्तों के घंटे दो घंटे की चिल्लम चिल्ली झेलने के बाद जब घर में प्रवेश करता है तो मुस्कराहट भी बोझिल लगती है और शिशु की किलकारी -एक कर्ण वेदन गूँज। कुछ पल स्वयं को शांत वातावरण में स्थिर करने के पश्चात ही वह स्वयं को गृहस्थ वातावरण के अनुकूल पाता  है।  ऐसी हो गई है मनः स्थिति।

और अन्य देखें तो हमारे पांच तत्वों में से दो तत्व - जल और भूमि भी विनाश के कगार की ओर अग्रसर हैं।  घरों व कारखानों का कचरा , अस्पतालों से फेंकी गई पट्टियां , दवाएं, प्लास्टर आदि इनसे मिल कर प्रदूषण फैला रही हैं और कारण बन रही हैं बाढ़ व अन्य प्राकृतिक आपदाओं का।  सरकार द्वारा कानून बनाये जाने के बावजूद खुले आम पॉलिथीन की थैलियों का उपयोग हो रहा है, हानिकारक रसायन  नदियों व समुद्र के पानी में उपस्थित प्राणी जगत पर भारी पड़ रहे हैं और बन रहे हैं उनके विनाश का कारण।

अगर इस स्थिति को अभी भी यहीं न रोक गया तो पर्यावरण कितने भयावह गर्त में डूब जायेगा इसकी कल्पना  भी असंभव है।  गाड़ियों की नियमित जांच परख ताकि वे विषैला धुंआ न छोड़ें , कारखानो का शहर से दूर स्थापीकरण , जनसँख्या विस्तार में रोक , दूषित तत्वों का नदी तालाबों में मिलान आदि कुछ ऐसे संभव उपाय हैं जो स्थिति की गंभीरता को विनाश की ओर बढ़ने से रोक सकते हैं।  साथ ही प्रयत्नशील होना पड़ेगा समस्त मानव जाती को इस प्रदूषण रुपी राक्षस के विनाश के लिए।  जागरूकता ज्ञान से आती है और ज्ञान विद्या दान से।  तो गुरु जान व विद्यार्थियों , जागो और संचार करो नई जागरण स्फूर्ति का अपने आस पास।  तभी संभव होगा नया कल - स्वच्छ, समृद्ध , वैभवशाली।


मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

तुम्हारे संग

तुम्हारे संग 

कितनी दूर तक चलने की चाहत है…… तुम्हारे संग
आसमाँ को छूने की चाहत है…… तुम्हारे संग
बादलों के उड़नखटोले में जहां को देखने की चाहत है ……तुम्हारे संग
गिरती हुई बूदों की टिपटिप कानो में भरने की चाहत है…… तुम्हारे संग
इंद्रधनुष के रंगों से जीवन को सजाने की चाहत है ……तुम्हारे संग
सागर की लहरों से खेलने की चाहत है…… तुम्हारे संग
गीली मिटटी में पैरों के निशाँ बनाने की चाहत है…… तुम्हारे संग
आँखों की बूदों में खुशियां समेटने की चाहत है…… तुम्हारे संग
बहारों के बगीचे में फूल खिलाने की चाहत है ……तुम्हारे संग
पत्तो की सरसराहट में मिल जाने की  चाहत है …… तुम्हारे संग
रूह को महका दे जो उस स्पर्श को पाने की चाहत है ……तुम्हारे संग
हर दिन एक एक पल का अहसास… उसे जीने की चाहत है ……तुम्हारे संग.… 
©Radhika Bhandari

ऐसे ही

ऐसे ही 
( Local Trains में भागते मनुष्य रुपी मशीनो के लिए )


( मासूम सा निरीह सा 
वो गम का गवाह था 
मचल के गोद में गिरा जो 
वो एक अश्क ही तो था )

ना धूप रहती है ना साया रहता है
जिंदगी हर पल बढ़ती जाती है
मन कसमसाया रहता है
काफिला हौसलों का
               कभी बुलंद
                     तो कभी पानी
सफ़र की दौड़ में ज़र्रा ज़र्रा सकपकाया  रहता है
रौशनी खुद की हो या मेहरे ताबा की
पाने की खोज में मन लपलपाया रहता है
 मुद्दत से मिला नहीं एक पल का  भी सुकून
ठहरने की चाह में दिल कसमसाया रहता है

©Radhika Bhandari