गुरुवार, 25 मई 2023

मेरा जीवन परिचय - राधिका मेहरोत्रा भंडारी

मेरा जीवन परिचय :

लखनऊ विश्वविद्यालय से B.Sc स्नातक की उपाधि और Diploma in Public Administration के साथ-साथ Post Graduate Diploma in Computer Applications एवं German Language में Proficiency Course के साथ अध्ययन कार्य संपूर्ण हुआ जिसके पश्चात काउंसलिंग की जॉब करी।  विवाहोपरान्त B.Ed एवं M.Sc (Mathematics) की डिग्री हासिल कर अब यह स्कूल मे अच्यापन कार्य मे रत हैँ । 
Educational TV लखनऊ में बतौर बाल कलाकार कार्य किया साथ ही स्क्रिप्ट्स भी लिखीं। आल इंडिया रेडियो, लखनऊ मे भी बतौर बाल कलाकार कार्य कर चुकी हैं। 
24 वर्ष से अध्यापन कार्य में रत गणित विषय की जटिलता को बच्चों के मन से दूर करने का इनका प्रयास जारी है साथ ही लखनऊ व मुंबई से प्रकाशित मैगज़ीन -  "अराउंड द इंडिया " , "हक्काचं व्यासपीठ " आदि में इनके आर्टिकल्स भी पब्लिश हुए  हैं। छंद मुक्त अभिव्यक्ति मंच द्वारा प्रकाशिक्त साझा काव्य संकलन - "कुछ यूँ बोले अहसास" के अलावा "लम्हों से लफज़ों तक" , "करोना" , "लाल", इत्यादि अनेको संकलन मे इनकी कवितायें भी छप चुकी हैं। हमरूह प्रकाशन के साथ इनका काव्य संकलन " आराध्य" प्रकाशित हुआ है। पुतक मंडी द्वारा प्रकाशित The writing Bee मे इनकी कवितायें  छप चुकी हैँ।
 Blogger होने के साथ् साथ वैदिक मैथ्स एवं जि़बू सिंबल  की जानकारी रखती हैँ और  भिन्न-भिन्न विषयों पर अपना मत देने का इनका सकारात्मक प्रयास जारी है । युवा पीढ़ी को भजन, श्लोक और अष्टकम सिखाने की ओर अग्रसर अपनी संस्कृति को सशक्त बनाने का इनका सतत प्रयास है  और जीवन का उद्देश्य है समाज उत्थान के लिए अपनी कर्मठता और ज्ञान से बदलाव लाना एवं स्वयंसिद्धा बनने का।  
अखिल भारतीय मराठी परिषद द्वारा आयोजित जून २०१६ में कालिदास जयंती पर स्वरचित काव्य प्रतियोगिता में द्वितीय स्थान प्राप्त किया ।  काउंसलिंग एवं एंकरिंग करना इनकी हॉबी भी है और स्व-प्रोत्साहन भी।  भजन गाने का शौक  इन्हे ईश्वर से जोड़ कर रखता है और जरुरत मन्दो की सहायता धरती से जोड़ कर। 


धन्यवाद

राधिका भंडारी
Email : radhika5475@gmail.com
ब्लॉग : www.mallikarb.blogspot.com
https://www.youtube.com/watch?v=XTGJrAc36S0

 




राष्ट्रभाषा हिंदी

 राष्ट्रभाषा हिंदी

हिंदी हमारी भाषा है, हम हिंदी भाषी हैँ

देवनागरी  लिपि है जिसकी, हम इसके अभिलाषी हैँ।

अभिनन्दन करते हैँ हम जब, गौरव भी प्रतीत करे

आओ हम सब मिलकर  क्यो ना निश्चय यह नवनीत करें।

महादेवी के गिल्लू ने स्थान हृदय मे बनाया था

प्रेमचंद की ईद गाह के चिमटे ने असर दिखाया था।

दिनकर जी की रश्मीरथी ने कृष्णा का क्रोध जताया था

पंत सुमित्रानन्दन ने हिंदी गरिमा को बढ़ाया था।

जैशंकर प्रसाद ने दी थी कामयानी हमें अति गूढ़

सूर्यकांत 'निराला' की कविता करती  किंकर्त्तव्यविमूढ ।

जबसे हम हैँ पैदा होते भाषा होती अभिन्न सा अंग

फिर क्यो हैँ हम करते रहते , अपनी ही भाषा से जंग

चलो सुनाएं फिर हम सब गाथा इस हिंदुस्तान की

हम हिंदी भाषी हैँ, भाषा है ये हिंद महान की।





गुरुवार, 26 मई 2022

उस दिन

उस दिन ..

ना जाने क्या हुआ था .... मन कुछ व्याकुल था। .. पर समझ नहीं आ रहा था की आज ऐसा क्यों लग रहा जो समझ से पर है .. शायद ऐसा कुछ होने वाला था जो मन को अंतर्मन तक छूने वाला था .. अपने रोज़मर्रा के कार्य कलापो को निबटा कर मैं हॉल रूम में आई थी कि बड़ी ज़ोर की चीख सुनाई पड़ी .. वाज़िब था की एक पल को लगेगा की कानो का भ्रम है  परंतु फिर दूबारा उसी चीख को सुन कुछ सतर्क हुई .. ध्यान दिया तो एक मर्द (क्या वाकई !!!) की आवाज़ भी सुनाई पड़ी..और कोलाहल..उफ़...आह..बचाओ..की ध्वनि तीव्र होती गई। .. पाशविकता की हद्द तक एक नारी की प्रतारणा करि जा रही थी और मैं आंसूओ को रोके अपने मन पर काबू रख बेचैन हो रही थी.. आप कहेंगे वाह !!!! क्या बचाने का प्रयत्न भी नहीं कर सकती थी ? जी किया..बेल भी बजाई ..किन्तु... द्वार खोले कौन ?????..बच्चे जो सुबक रहे थे या पति जो हाथ उठा रहा था..या वो पढ़ीलिखी स्त्री जो पिट रही थी ????

मन बहुत व्याकुल हो गया .. चेयरमैन की वाइफ को फ़ोन किया तो वो बोली की पुलिस में फ़ोन कर दो किन्तु..इतना बड़ा डिसिशन मैं कैसे ले लेती ?.. बहरहाल अत्यधिक अत्याचार सह लेने के उपरान्त जब उसकी ऊँगली मरोड़ कर तोड़ दी गई (जैसा मुझे बाद में पता चला ) तो वो निकल पड़ी... और जब दूसरी neighbor ने बताया की वो बाहर को गई तो मैं दौड़ी..  चलती जा रही थी वो राह पर होशोहवास खो कर ..मन काँप गया की कोई गाडी वाला उड़ा देता तो ??!!... और गाडी से उतर कर ज़बरदस्ती खींचा उसे कार के अंदर  और प्लास्टर बंधवा कर घर लाई ..

मित्रों !!!! बात सिर्फ इस घटना की नहीं क्योंकि ये एक ऐसी घटना है जो शायद हर रोज़ कही न कही घटती ही होगी परंतु...  मेरा मन ये कह रहा बार बार.... कि क्या स्त्री पढ़ लिख कर भी इसीलिए सहती रहे कि बच्चों का क्या होगा.!!!! . कि माँ पिता के  घर गई तो ज़माना क्या कहेगा !!!!!!  कि अलग रह कर जीवन यापन किया तो ज़माने के अनेको मर्द उसे खा जाने वाली नज़रों से देखेगे .!!!!! .की जो संस्कार मा पिता के घर से मिले उसमे ये सिखाया गया की डोली गई तो वहां से अर्थी ही उठेगी ...  चाहे सितम सह सह कर ज़िंदा लाश बन जाए .. न जाने मन आज तक इस सवाल का जवाब क्यों नहीं दे पाया कि क्या सलाह दूँ उसको?? ..छोड़ दे सब कुछ और नया जीवन शुरू करे  .पर अकेले या नए साथी के साथ ???..गर अकेले तो कैसे ज़माने की गिद्ध नज़रों से बचे और नया साथी ढूंढ ले तो क्या गारंटी की वो भी पुनर्स्थापित नहीं करेगा पाशविकता का स्तम्भ !!!!??? अगर चलती रहे उसी गृहस्थी में सब कुछ भूल तो क्या पॉसिबल है !!! सब कुछ भूल जाना.. क्या टीस नहीं उठती रहे जीवन पर्यन्त ..  .क्या दोहराया नहीं जाएगा वो वाक़या !!!बड़ी उलझन भरी मनः स्थिति है मित्रों.. प्रैक्टिकल होना एक अलग चीज़ है और कोरा ज्ञान बांटना कुछ और . परंतु मेरे मन की संवेदना को छू गई घटना और उसे कुछ शब्द दे दिए मैंने और आप के साथ मन की दुविधा बाँट ली .... राधिका

एक नीड़  बनाया है उसने
वो जननी है वो अर्धांगिनी है
उस के गौरव को मत रौंदो
वो तुम्हारी शुचिमय भगिनी है




अनुभूति

अनुभूति

मानवीय  संवेदनाओं को कलम द्वारा शब्दों का रूप देना इतना  सरल नहीं होता परन्तु   फिर भी ये एक प्रयास है जीवन की कड़ियों को  जोड़ने का।  ह्रदय के उदगार  पृष्ठों में समेटने  का ; सरल किन्तु जटिल क्यूंकि इंसानी अपेक्षाएं और उनसे जुड़े  ताने बाने किंचित मकड़े के जाले  सदृश होते हैं। दिखने में स्पष्ट किन्तु भीतर प्रवेश करते ही मायाजाल।  एक बड़ा मायावी महल जिसमे भांति भांति के पात्र अपने अलग अलग रूप और चालों के साथ समय के साथी बनते जाते हैं।  घडी की टिक टिक  के साथ जीवन अग्रसर होता जाता है । जीवन आरम्भ होता है  एक किलकारी से और अंत होता है एक हिचकी पे।  बस इन्ही दो ध्वनियों के मध्य ये जीवन का रंगमंच और  जीवन रुपी नाटिका।  पात्रता के साथ न्याय करना अति आवश्यक है संपूर्ण जीवन को भरपूर रूप से जीने के लिए।    कदाचित ऐसा ही होता तो बगीचा सदैव सुगंध से परिपूर्ण रहता और उसमे खिले पुष्पों का अहसास जीवन को सरल प्रवाहमान रखता ।  परन्तु जिस प्रकार  प्रकर्ति ने कुछ भी अधूरा या एक नहीं बनाया, अर्थात सूरज और चाँद , चाँद और चांदनी , धरती- आकाश , रेत - दरिया , रात - दिन , दिल - दिमाग --और ना जाने  कितने अनगिनत जोड़े बनाये हैं उसी प्रकार  जीवन भी आशा निराशा , सुख दुःख , आना जाना , उतार चढ़ाव , साथी शत्रु , अपने पराये , आदि भिन्न भिन्न युग्मों से भरा हुआ है ।

कितना कुछ विचारों के मंथन से प्रिया के समक्ष उपस्थित हो साकार हो आया - प्रिया आज अपने चालीसवें जन्म दिवस पर अतीत से वर्तमान और फिर वर्तमान से अतीत के गहरे सागर में गोते खाती हुई भावनाओं  के धरातल पर तैरती रही।  पीहर में जितने वर्ष बिताये , उतने ही वर्ष उसकी गृहस्थी के संग बीत गए।  बीस वर्ष की आयु में उसे क्षितिज के साथ बड़े लाड़ प्यार से माता पिता ने विदा कर दिया था।  धूमधाम से संपन्न किया उसका विवाह।  इतनी रौनक जो आस पास के लोगों ने न कभी देखी होगी न कभी सुनी।  अनेकों उपहार , भरपूर प्यार और दुलार से पाली पोसी कन्या का पाणिग्रहण कर दिया गया राजकुमार के साथ उसके सपनो का महल बनने के लिए ।

हाँ , सपना ही तो बन कर रह गया उसका महल।  महल - जिसकी नींव रखने में प्रिया ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया , वो सिर्फ रेत का महल ही तो बन पाया था।  वो आशिआना जो बार बार टूटा और बार बार बनाया गया।  आंसू ओं से गीले हुए गालों को पोछकर  प्रिया ने अपनी शादी के चित्र देखने आरम्भ किये। 

सुन्दर इकलौती , सर्वगुण संपन्न , सबकी आँखों का तारा ,  गुड़िया जैसी दिखती थी वो ।  शादी की सारी तैयारियां प्रारम्भ होते ही उसे तीन दिन पहले पूजा के कमरे में बैठा दिया गया।  " बस दीपक की लौ देखती रहो बेटी , तुम्हारी आँखों में इसकी चमक शादी के दिन देखते ही बनेगी  " - ऐसा कहकर  दादी माँ ने वहीँ गद्दा डालकर जगह बना दी।  आवश्यक कार्य के लिए निकलती और फिर उसी लौ के सामने।  दीपक ने शायद जीवन को अग्नि परीक्षा बनने की सूचना दे दी थी परन्तु प्रिया , नासमझ प्रिया यह समझ ही ना पाई। बरात के आने की  तैयारी , सभी भागम भाग में व्यस्त ,  भाभी भी सामान की सूची से मिलाप करती बीच बीच में परिहास कर जाती कि  - " अपने पिया के घर जाकर भूल न जाना जीजी "....

 कैसे भूलेगी वो पीहर अपना और वह भी तब जब यादों की सौगात समेटे जा रही थी वो।  मन व्याकुल था आत्मा बेचैन परन्तु मुख पर कोई भाव नहीं।  होंठ सी लिए थे उसने।  प्यार की बहुत बड़ी हार का सामना कर ना पाई थी वो और इस हार को ज़हर समझ गले तक ही रखा था नीलकंठ की तरह। इन्ही मनोभाव से झूल रही थी वह कि आहट हुई और किसी रिश्तेदार ने कहा - दीदी आपसे कोई मिलने आया है।  गेट पर ही खड़े हुए हैं आपको बाहर बुलाते हैं। 

प्रिया ने सोचा, फिर पुछा - " नाम क्या है, कौन हैं ? मुझे क्यों कह रहीं , माँ को कहिये ना ". - "  मामीजी ने  प्रिया से कह उसी के मेहमान हैं  कोई।

अनमने ढंग से प्रिया बढ़ी दरवाजे से बाहर की ओर ।  अँधेरा था कुछ समझ ना आया की कौन खड़ा है।  दूर से एक  आकृति सी दिखाई दी।  प्रिया के पाँव ठिठके , पर बढ़ी और ज्योंही गेट के सामने पहुंची कि मुँह से यक बायक आवाज़ निकली - "तूम !  और पाँव जैसे ज़मीन पर जम ही  गए। सामने करन खड़ा था।  करन को  देखकर मिश्रित भाव  से तैर गए मुख पर, जो आंसू बनकर  गाल से लुढक पड़े।  उधर करन इधर प्रिया और उनके मध्य कर्णभेदी  सन्नाटा।  कितना असीम प्रेम दोनों का , परिस्थितियों ने तोड़कर रख दिया था।  आज इतने समय के पश्चात अपने प्रिय को समक्ष देख  प्रिया की आँखों से अविरल आंसू बहने लगे।  जिसे समझी थी अपनी ज़िन्दगी सबसे बड़ी हार , वो  प्रत्यक्ष था, उसके समीप, उसके सामने, ज़िन्दगी को मजाक बना देने वाला, आज अपना और प्रिया का  मजाक  बनता देख रहा था । करन के चेहरे पर प्रश्न था जिसे प्रिया ने पढ़ लिया।  बोली -"  अबकुछ  नहीं हो सकता करन।  मेरी भाग्य रेखा तुमसे जुड़नी नहीं लिखी थी और इस निर्णय के ज़िम्मेदार तुम स्वयं  हो. जो हाथ पाणिग्रहण में तुम्हारे हाथों में सौंपा जाना था अब वो किसी और के साथ जुड़ने वाला है।  बहुत देर कर दी तुमने।"

करन हमेशा की तरह उस समय भी चुपचाप खड़ा एकटक निहारता उसको सुनता रहा।  सदैव की तरह ही , न उसने कोई ज़िद करी न कोई बात कही।  बस यूँ ही निहारता रहा अपलक अपनी प्रिया को।  दिल की बात दिल में समेट कर ही रखना उसकी आदत थी हंमेशा से से।  इसी गलती की सज़ा ही तो विडम्बना बन गई दोनों के जीवन की। काश उस दिन कह दिया होता -" रुक जाओ प्रिया", और वो रुक ही जाती , या , हक़ से मांग लेता प्रिया के पिता से उसको।  परन्तु काल का चक्र कहाँ देता है किसी को समय निकल जाने के बाद दूसरा अवसर ? और भीगे मन से विदा हो  गई प्रिया।  चल पड़ी नए सफर पर क्षितिज  साथ।  भूल जाना चाहती थी अतीत , पर क्या भूल पाई है वो  आज भी चालीसवें वर्ष में जीवन के ? शायद नहीं।

"माँ , हम आ गए ", कहते हुए विश्वास , कनक और तीर्थ ने घर में प्रवेश किया।  माँ की आँख के तारे।  उसके नन्हे मृगछौने स्कूल से घर आ गए थे।  आते ही तीर्थ ने गले में हाथ डालकर  प्रिया को प्यार किया और पुछा - " पापा ने आपको बधाई दी ? जन्म दिन की ? " हाँ बेटा बहुत प्यार से " ऐसा कहकर प्रिया चल दी रसोईघरकी तरफ बच्चों के लिए भोजन गर्म करने  . मन ही मन सोचती कि क्या अस्तित्व है उसका या उसके जन्मदिन का क्षितिज के जीवन में ? मात्र एक सहायिका है वह जो गृहस्थी की गाड़ी का पहिया तो है,  

to be continued......









        

The Culturally enhanced Resilient India of Future

 In my words:

The culture has been the foundation stone

Of all the civilizations to us known

Let us all take the legacy forward

Among all the existing virtues, may culture take the throne 

“Unity in diversity, that is India’s speciality” Very true! India is a nation of multiple languages, religions, dance, music, food and customs. Indian culture, frequently termed as a combination of multiple cultures, has been influenced by a history that is several millennia old, beginning with the Indus Valley Civilization and other early cultural areas. Several factors of Indian culture, like Philosophy, Languages, Mathematics, Dance and Music, architecture have had a profound impact across the world. 

Religion has always been an impactful influencer for the development of culture. Throughout the history of India, our culture has been heavily influenced by Dharmic religions and we have always been God fearing. That is what was fundamentally understood by the kings in ancient times and with that, they won the hearts of people by constructing a greater number of temples. The architectural wonders not only became part of historical influence but also led the people to be more religious and made the system run smooth. India is the birthplace of Hinduism, Buddhism, Jainism, Sikhism, and other religions that are still prevalent in the current time. It indeed comes with a fact that when multiple cultures are finding presence, it would lead to clashes and difference of opinion as well. The fanatics have at times became so strong that they led the war like movements because of the differences in the inclination towards different aspects of life w.r.t religion. Yet, proudly, we have surpassed all the turmoil and have stood as one nation. The amalgamation of all the religion into our culture has indeed multiplied its beauty. Today, Hinduism and Buddhism are the world's third and fourth-largest religions respectively, with over 2 billion followers altogether.

The Indo-Aryan languages and rice cultivation, was introduced by East/ Southeast Asian rice-agriculturalists using a route from Southeast Asia through Northeast India into the Indian subcontinent. They have been credited with shaping much of Indian philosophy, literature, architecture, art and music. The spread of Hinduism, Buddhism, architecture, administration and writing system from India to other parts of Asia was through the Silk Road by the travelers and maritime traders during the early centuries of the Common Era. (Common Era is an alternative to the Anno Domini (AD). 

The philosophical approach of Indians has been able to shape the structure of the Society that has changed the way the people thought. There was a paradigm shift in the mind-set of the society by these reformers and lot many evil practices and the demerits of the societies were taken care of. The reformers’ philosophy has always been the important factor in the cultural development. The main schools of Indian philosophy were formalized chiefly between 1000 BCE to the early centuries of the Common Era. 

The fun and fervor which Indians have been enjoying since time immemorial has been a part that cannot be extracted from the memories. The nostalgia becomes stronger when the older generation revisits their past. With every coming generation, the technology advances but the legacy to carry on the festivals, its rituals, its norms are followed and taken ahead. In the earlier times with the less population, we had multiple celebrations with people gathering and many of the festivals developed in order to have people coming together and celebrating, barring the cast creed and the economic level. India has always been multicultural and multi ethnic and has been celebrating the festivals of various religions. The Independence Day, the Republic Day and the Gandhi Jayanti been three national holidays in addition to many other state-wise and region wise local festival have been popular not only with the natives but also among the other nations of the world. Festival is a very important part of our integration. 

Clothing, cuisine, literature, language, architecture and festivals have been part of the cultural development. Music and dance, as well as all the performing arts have been playing an influential role in the development of culture and all these factors become part of bringing several nations together bringing in the harmony among the population of the world. 

According to Sadguru – “Today, India is on the threshold of an economic upsurge. Various things that we did not even dream were possible for a larger segment of the population could be possible in the next few years – if we handle things right. Large segments of the population could benefit hugely. We are right on the threshold, and if we handle the situation smartly, we can be a tremendous power because we are a population of 1.3 billion. A population of 1.3 billion with the necessary intellect, is as good as anything can be. If we handle ourselves right, we can be a tremendous power.” That should be the vision and mission for going ahead. The future should be seeing the large population as a Human resource and not as population explosion with the scarcity of resources. Knowledge brings patience and motivation to achieve. The overall impact of inducing penchant for learning would lead to a better and developed nation. This can be done by taking cultural aspects into consideration. As a united world, we need to see to it that we become so powerful that our population is making impact on the decision making and not making us slaves by remaining non-united. 

The future must come in the form of technically developed India along with the flourishing, happy and healthy society. We look forward to the humans controlling the machines and not the vice versa. The various forms of clothing being part of different states should be giving way to more employment and may we see more looms coming up, to settle the small-scale industries for the benefit of this voluptuous population. Along with the improvement in the financial status, there would be revival of the traditional clothing and cloth materials. Engagement of families that knows how to create, would be a boon to the growth. Architectural monuments may become a part of national and international tourism bringing with it the primary concern of maintenance to preserve them well. Accountability leads to profitability and we can ensure with it the very essence of the survival of monuments, sculptures, employment, state wise revenue inflow along with the cherry on cake, the culture. 

The harmony and Bon hominess is integral to any society and for that purpose, I see there would be a drastic shift from the nuclear to the bigger families; from celebrating in solitude to celebration of community; from ‘me’ to ‘us’ and that would be the flavor of the festivals. Future would be richly enhanced with ‘We shall overcome with walking hand in hand’ mindset. My futuristic vision of India is indeed a very positive one with the learnings from the past. The wars and conflicts have already devoid people of the resources and have given them the lesson for the future. We being resilient in nature, has helped tremendously in bringing us back to normal. The cultural rainbow of India would surely be more colorful with its set of colors to make nation shine and we would be seeing the nation that becomes exemplary. The cultural diversification would become profound factor for the financial, physical, emotional and psychological development. Good Health is a state of the mind which is being socially, physically and mentally happy and that would be with the entire nation as I envision India to be moving progressively. The nation would flourish under the wings of liberal attitude and broader views on religion, language and literature. The literature has proven to be a very good resource of bringing changes to the society. The better infrastructure, the availability of multiple streams would be bringing to us many more noble laureates of literature. The society gets impacted with word-crafters way of influential articles and speeches. I see the year ahead with many more commanding orators, confidents speakers and prominent leaders. My idea of my nation with respect to cultural enhancement is to see my nation getting applause from the other nations for being right and just; for being the nation that utilizes its population as human resource in a constructive manner and the cuisine, sports, languages, sculptures and philosophy etc. bring a wider horizon to it. 

The cultural boundaries need to be lifted up so that we can gracefully embrace the good learnings of all the faiths. India shall be the power to show how the species of human can exist with the all-round development of all the five senses and brain being aesthetically inclined, technologically upgraded and humane, the new era of future generation will learn and progress with it. The utilization of resources would be more prolific as exchange of thoughts and knowledge sharing would be a part of new mindset and we all shall see the rise of the sun in the form of nations working together. 

Developed nations have higher happiness quotient and that comes with the appropriate revenues and resources. Let us all pledge to see India as a nation called ‘Soney ki chidiya’ once again. Let us all make sure that we bring the reformation for the upliftment of society, for all the states and the regions. We are Indians and we shall follow the culture of humanity. Let the light be kindled and may the shine spread all over. Let us all take the nation towards a greater goal of We All Shall Grow. 

I dream of India that is ours

None of the mind is behind bars

We feel liberated with the onset of Light

The light of wisdom that is culturally bright

I envision 100th year to be an exemplary year

Where the head is held high and without fear

The culture will integrate growth with the population

That is when we will see the rising nation

Traditions shall be seeing the revival

The nation will see the growth’s arrival

Harmony and peace would be acknowledged with zeal

Humanity will prevail with its utmost feel

May we all pledge to see language and literature further

May we celebrate the festivals of freedom with fervour

India in future shall be an enlightened nation

That would be a promise of resource conservation

For the nation to survive for millions of years

Without the agonies, pain and tears.

The India that we want to see on the platform of the world with a vision of “United we stand, divided we fall” encompassing all the cultures with their variations. The ‘kose kose par badle paani, chaar kose par vaani’ idiom has been existing since the time immemorial, yet keeping the population integrated as one Bhartiya and that is the jewel in the crown. Culture plays a very important part in everyone's life and we need to see to it that with every passing day we are instilling the values in the current generation. We need to see to it that we propagate with the thought of keeping Culture intact along with the development in the arenas of Science, Technology, Politics and Sports.

Thank you

-Radhika Bhandari©

रविवार, 24 अप्रैल 2022

शत्रु

  --  शत्रु --

शत्रु वो नहीं जो छलता है तुमको

जी छलनी करता है तुम्हारा....

शत्रु वो है 

जिसे तुम अपना हृदय कहती हो

क्यूंकि वो ही दमन कराता तुम्हारी इच्छाओं का...

क्यूंकि वो ही बैरी बन तुम्हारी चुप्पी बन जाता...

नित नये तानो को सुनकर भी

वो ही तुम्हे बरबस रुलाता....

और सूखते जाते आंसूओं को 

....वो बस ढाढस ही बंधाता....

तुम हर बार सुनती उसकी

क्यूंकि बंधा है वो किसी और से....

छदम धारी तुम्हारा शत्रु ..._तुम्हारा हृदय ....

तुम्हारा ही दमन करता जाता

क्यूंकि तुमने वरण किया उस पाषाण का...

जिसके लिए तुम सदैव झुकती जाती हो

कहो तो....

अपनी कामना को स्वप्न बना किस लोक मे सजाती हो ?

ये चक्र आखिर अपनी परिधि मे कब तक घूमेगा, बोलो तो ?

अपनी आकांक्षाओं की गठरी कभी खोलो तो!

बना लो इस चक्र को सुदर्शन अब, मिश्री की मुस्कान स्वयं के लिए भी घोलो तो!

अपनी आकांक्षाओं की गठरी कभी खोलो तो!

©राधिका भंडारी

रविवार, 9 जनवरी 2022

कुछबातें‌अधूरी सी

 *कुछ बातें अधूरी सी*

रह जाती है सीने में धड़कन बनकर

 जो कही नहीं जाती ...कुछ बातें अधूरी सी 

जुबां पर आते-आते हलक में ही रुक जाती हैं 

जो बयां नहीं होती ... कुछ बातें अधूरी सी 

तुम्हें देख कर मुस्कुरा दें, या खोने की याद में रो दे 

वो समझ नहीं आतीं ... कुछ बातें अधूरी सी 

यकीनन खुदा ने खेला था मजाक कि सफर साथ मुकम्मल ना हुआ 

जो मंजिल तक करनी थी ना कर पाए ...कुछ बातें अधूरी सी 

वो जो पानी में पत्थर फेंक कर बनाते थे तरंगे 

पानी से गुस्ताखियां, बद्दुआओं में दे गई ....कुछ बातें अधूरी सी 

जमाने की नजरों में हासिल थे तुम मुझे और मैं तुम्हें 

पर कहीं शायद हम दोनों के बीच रह गई ....कुछ बातें अधूरी सी 

कुछ बातें अधूरी सी 

कुछ बातें अधूरी सी....

राधिका भंडारी