गुरुवार, 26 मई 2022

अनुभूति

अनुभूति

मानवीय  संवेदनाओं को कलम द्वारा शब्दों का रूप देना इतना  सरल नहीं होता परन्तु   फिर भी ये एक प्रयास है जीवन की कड़ियों को  जोड़ने का।  ह्रदय के उदगार  पृष्ठों में समेटने  का ; सरल किन्तु जटिल क्यूंकि इंसानी अपेक्षाएं और उनसे जुड़े  ताने बाने किंचित मकड़े के जाले  सदृश होते हैं। दिखने में स्पष्ट किन्तु भीतर प्रवेश करते ही मायाजाल।  एक बड़ा मायावी महल जिसमे भांति भांति के पात्र अपने अलग अलग रूप और चालों के साथ समय के साथी बनते जाते हैं।  घडी की टिक टिक  के साथ जीवन अग्रसर होता जाता है । जीवन आरम्भ होता है  एक किलकारी से और अंत होता है एक हिचकी पे।  बस इन्ही दो ध्वनियों के मध्य ये जीवन का रंगमंच और  जीवन रुपी नाटिका।  पात्रता के साथ न्याय करना अति आवश्यक है संपूर्ण जीवन को भरपूर रूप से जीने के लिए।    कदाचित ऐसा ही होता तो बगीचा सदैव सुगंध से परिपूर्ण रहता और उसमे खिले पुष्पों का अहसास जीवन को सरल प्रवाहमान रखता ।  परन्तु जिस प्रकार  प्रकर्ति ने कुछ भी अधूरा या एक नहीं बनाया, अर्थात सूरज और चाँद , चाँद और चांदनी , धरती- आकाश , रेत - दरिया , रात - दिन , दिल - दिमाग --और ना जाने  कितने अनगिनत जोड़े बनाये हैं उसी प्रकार  जीवन भी आशा निराशा , सुख दुःख , आना जाना , उतार चढ़ाव , साथी शत्रु , अपने पराये , आदि भिन्न भिन्न युग्मों से भरा हुआ है ।

कितना कुछ विचारों के मंथन से प्रिया के समक्ष उपस्थित हो साकार हो आया - प्रिया आज अपने चालीसवें जन्म दिवस पर अतीत से वर्तमान और फिर वर्तमान से अतीत के गहरे सागर में गोते खाती हुई भावनाओं  के धरातल पर तैरती रही।  पीहर में जितने वर्ष बिताये , उतने ही वर्ष उसकी गृहस्थी के संग बीत गए।  बीस वर्ष की आयु में उसे क्षितिज के साथ बड़े लाड़ प्यार से माता पिता ने विदा कर दिया था।  धूमधाम से संपन्न किया उसका विवाह।  इतनी रौनक जो आस पास के लोगों ने न कभी देखी होगी न कभी सुनी।  अनेकों उपहार , भरपूर प्यार और दुलार से पाली पोसी कन्या का पाणिग्रहण कर दिया गया राजकुमार के साथ उसके सपनो का महल बनने के लिए ।

हाँ , सपना ही तो बन कर रह गया उसका महल।  महल - जिसकी नींव रखने में प्रिया ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया , वो सिर्फ रेत का महल ही तो बन पाया था।  वो आशिआना जो बार बार टूटा और बार बार बनाया गया।  आंसू ओं से गीले हुए गालों को पोछकर  प्रिया ने अपनी शादी के चित्र देखने आरम्भ किये। 

सुन्दर इकलौती , सर्वगुण संपन्न , सबकी आँखों का तारा ,  गुड़िया जैसी दिखती थी वो ।  शादी की सारी तैयारियां प्रारम्भ होते ही उसे तीन दिन पहले पूजा के कमरे में बैठा दिया गया।  " बस दीपक की लौ देखती रहो बेटी , तुम्हारी आँखों में इसकी चमक शादी के दिन देखते ही बनेगी  " - ऐसा कहकर  दादी माँ ने वहीँ गद्दा डालकर जगह बना दी।  आवश्यक कार्य के लिए निकलती और फिर उसी लौ के सामने।  दीपक ने शायद जीवन को अग्नि परीक्षा बनने की सूचना दे दी थी परन्तु प्रिया , नासमझ प्रिया यह समझ ही ना पाई। बरात के आने की  तैयारी , सभी भागम भाग में व्यस्त ,  भाभी भी सामान की सूची से मिलाप करती बीच बीच में परिहास कर जाती कि  - " अपने पिया के घर जाकर भूल न जाना जीजी "....

 कैसे भूलेगी वो पीहर अपना और वह भी तब जब यादों की सौगात समेटे जा रही थी वो।  मन व्याकुल था आत्मा बेचैन परन्तु मुख पर कोई भाव नहीं।  होंठ सी लिए थे उसने।  प्यार की बहुत बड़ी हार का सामना कर ना पाई थी वो और इस हार को ज़हर समझ गले तक ही रखा था नीलकंठ की तरह। इन्ही मनोभाव से झूल रही थी वह कि आहट हुई और किसी रिश्तेदार ने कहा - दीदी आपसे कोई मिलने आया है।  गेट पर ही खड़े हुए हैं आपको बाहर बुलाते हैं। 

प्रिया ने सोचा, फिर पुछा - " नाम क्या है, कौन हैं ? मुझे क्यों कह रहीं , माँ को कहिये ना ". - "  मामीजी ने  प्रिया से कह उसी के मेहमान हैं  कोई।

अनमने ढंग से प्रिया बढ़ी दरवाजे से बाहर की ओर ।  अँधेरा था कुछ समझ ना आया की कौन खड़ा है।  दूर से एक  आकृति सी दिखाई दी।  प्रिया के पाँव ठिठके , पर बढ़ी और ज्योंही गेट के सामने पहुंची कि मुँह से यक बायक आवाज़ निकली - "तूम !  और पाँव जैसे ज़मीन पर जम ही  गए। सामने करन खड़ा था।  करन को  देखकर मिश्रित भाव  से तैर गए मुख पर, जो आंसू बनकर  गाल से लुढक पड़े।  उधर करन इधर प्रिया और उनके मध्य कर्णभेदी  सन्नाटा।  कितना असीम प्रेम दोनों का , परिस्थितियों ने तोड़कर रख दिया था।  आज इतने समय के पश्चात अपने प्रिय को समक्ष देख  प्रिया की आँखों से अविरल आंसू बहने लगे।  जिसे समझी थी अपनी ज़िन्दगी सबसे बड़ी हार , वो  प्रत्यक्ष था, उसके समीप, उसके सामने, ज़िन्दगी को मजाक बना देने वाला, आज अपना और प्रिया का  मजाक  बनता देख रहा था । करन के चेहरे पर प्रश्न था जिसे प्रिया ने पढ़ लिया।  बोली -"  अबकुछ  नहीं हो सकता करन।  मेरी भाग्य रेखा तुमसे जुड़नी नहीं लिखी थी और इस निर्णय के ज़िम्मेदार तुम स्वयं  हो. जो हाथ पाणिग्रहण में तुम्हारे हाथों में सौंपा जाना था अब वो किसी और के साथ जुड़ने वाला है।  बहुत देर कर दी तुमने।"

करन हमेशा की तरह उस समय भी चुपचाप खड़ा एकटक निहारता उसको सुनता रहा।  सदैव की तरह ही , न उसने कोई ज़िद करी न कोई बात कही।  बस यूँ ही निहारता रहा अपलक अपनी प्रिया को।  दिल की बात दिल में समेट कर ही रखना उसकी आदत थी हंमेशा से से।  इसी गलती की सज़ा ही तो विडम्बना बन गई दोनों के जीवन की। काश उस दिन कह दिया होता -" रुक जाओ प्रिया", और वो रुक ही जाती , या , हक़ से मांग लेता प्रिया के पिता से उसको।  परन्तु काल का चक्र कहाँ देता है किसी को समय निकल जाने के बाद दूसरा अवसर ? और भीगे मन से विदा हो  गई प्रिया।  चल पड़ी नए सफर पर क्षितिज  साथ।  भूल जाना चाहती थी अतीत , पर क्या भूल पाई है वो  आज भी चालीसवें वर्ष में जीवन के ? शायद नहीं।

"माँ , हम आ गए ", कहते हुए विश्वास , कनक और तीर्थ ने घर में प्रवेश किया।  माँ की आँख के तारे।  उसके नन्हे मृगछौने स्कूल से घर आ गए थे।  आते ही तीर्थ ने गले में हाथ डालकर  प्रिया को प्यार किया और पुछा - " पापा ने आपको बधाई दी ? जन्म दिन की ? " हाँ बेटा बहुत प्यार से " ऐसा कहकर प्रिया चल दी रसोईघरकी तरफ बच्चों के लिए भोजन गर्म करने  . मन ही मन सोचती कि क्या अस्तित्व है उसका या उसके जन्मदिन का क्षितिज के जीवन में ? मात्र एक सहायिका है वह जो गृहस्थी की गाड़ी का पहिया तो है,  

to be continued......









        

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