आस
क्यूँ मन हो जाता आकुल व्याकुल
जब भूल चुकी मैं तुमको
क्यों चुपके से तकती हैं आँखें
जब बिसर चुकी मैं तुमको
तुम ह्रदय में आये , संग मुस्काये
भूल गई मैं सब कुछ
कितने सपनों के ख्वाब सजाये
खो बैठी मैं सुध बुध
जब जागी तो पाया ये मैंने
हार गई मैं सब कुछ
है पाने की अब चाह नहीं ,
पर खोने को मन तैयार नहीं
कैसे कह दू नादाँ मन को
कि नहीं शेष है अब कुछ
क्यूँ मन हो जाता आकुल व्याकुल
जब भूल चुकी मैं तुमको
क्यों चुपके से तकती हैं आँखें
जब बिसर चुकी मैं तुमको
तुम ह्रदय में आये , संग मुस्काये
भूल गई मैं सब कुछ
कितने सपनों के ख्वाब सजाये
खो बैठी मैं सुध बुध
जब जागी तो पाया ये मैंने
हार गई मैं सब कुछ
है पाने की अब चाह नहीं ,
पर खोने को मन तैयार नहीं
कैसे कह दू नादाँ मन को
कि नहीं शेष है अब कुछ
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