सोमवार, 22 सितंबर 2014

कुछ और....

एक तरफ तू,      एक तरफ मैं
तेरे हालात कुछ और
मेरी हालत  .... कुछ और
तेरी यादों में सिमटी
मेरी तसल्लियाँ
तुझे न पाने  का गम कुछ और
तुझे खोने का  गम कुछ और
तुझे पाकर भी न पा सकी
तेरी मजबूरियाँ कुछ और
मेरी मजबूरियाँ कुछ और
नादान है इश्क ,  नादान है दिल
 पर तेरी फितरत कुछ और , तेरे ज़ज़्बात कुछ और
सिहरन सी देता है तेरा अंदाज़
तेरी यादों के समुन्दर में मेरे नाम का परवाज़
आज भी उड़ता सा लगता है
पर तेरा किनारा कुछ और , मेरा कुछ और
हक़ है ये प्यार  का , अदा करो या न करो   
मेरी ख्वाहिशों का सिला
                    कुछ और
तेरे इंकार की वज़ह
                     कुछ और
 

Many a times...

Many a chance I gave to you
Many a chance you lost
Many a times I thought you cared
Many a times you crossed
Many a things I thought I'll share
Many a things got rot
Many a years I waited for you
Many a years you fought
and finally the day
has come, which says...
I'll have to let you go
As holding will stink the love
And I ...
can't bring ; the epitome to low...

बुधवार, 17 सितंबर 2014

अकेला


स्वयं को ढूंढती मैं खुद से हैरान
कभी खुशियों में हंसती
कभी दुःख में परेशान
न जाना क्या पाया
न जाना क्या खोया
हर एक दिन, बस आस ही को बोया
बेजुबां दिल की भाषा
ना किसी ने समझी ना जानी
हर बार अकेला ही
       वो ज़ार ज़ार रोया
                    वो ज़ार ज़ार रोया  

सोमवार, 4 अगस्त 2014

सुख और दुःख

सुख और दुःख एक अंदाज़ हैं ; जो आपके दिल को दुखाये वो दुःख और जो ह्रदय को संतुष्टि दे वो सुख।

परन्तु फिर भी हम भागते हैं एक पक्ष के पीछे पीछे और दुसरे पक्ष से  दूर दूर।  क्यों नहीं हम स्वयं को इतना शक्तिशाली बनाते कि इन भावनाओं के  आकलन से दूर रह सकें ; कुछ पाकर - स्वयं को  संतुष्ट कर सकें और दूसरों को कुछ देकर - उनका दुःख दूर  सकें।  मन में इतनी शक्ति तो उत्पन्न करें कि कल्पना को यथार्थ स्वरुप कर सकें। ना हार को दिल में जगह दें न ही दिमाग में … करें कुछ तो प्रेरणा का स्रोत बनें।

 ह्रदय कि अस्थिरता का कारण इन भावनाओं के जाल में फंसना ही तो है।  स्व अगर मजबूत हो तो  पराये और अपने सभी , साथ  के साथ साथ आदर भी देंगे अन्यथा संग तो दूर रहा अनादर ही मिलेगा।  वहीँ से सुख  और दुःख विभाजित हो जाते हैं ,,,स्वयं पर है निर्भर क्या चुनते हैं ,,,,,जैसी स्थिति वैसी चेष्टा ....... कदाचित हमे जीवन को  भरपूर जीने के लिए  प्रेरित कर सके। 

मात्र दूसरों का अनुसरण करना भी श्रेयस्कर नहीं , अपनी काबिलियत पर भरोसा और आत्मा के ऊपर अभिमान के साथ किये गए कार्यों को ही सराहना मिलती है।

जो बातें हमारे मन से जुडी होती हैं, हम उन्हें ही दूसरो के द्वारा  भी , ऐसा किआ जाना अनिवार्य मानने लगते हैं  . ऐसा न होते ही शुरुआत होती है मन में दरार की।   जीवन कोई जंग नहीं जिसे लड़ा जाए ; ये तो वो गुलज़ार वो बगीचा है जिसमे सिर्फ प्रेम के फूल ही खिलने चाहियें।  जितना बाटों उतना कम।  ईश्वर के हुक्म के बिना तो एक पत्ता भी नहीं खड़क सकता फिर हम क्यों नाशुक्रों की तरह अपनी तरह से संसार और जीवन की गति को चलाने को  आतुर रहते.  ???
 

शनिवार, 2 अगस्त 2014

बार बार

मैं चली जाती दूर ,,, बहुत दूर
   गर तुम बुरे होते
मैं आस का दीपक बुझाती
     गर तुम बुरे होते
मैं नैनों की टकटकी लगाये
  तुम्हारी बाट न जोहती
    गर तुम बुरे होते
मैं अश्रु की धारा न बहाती
     गर तुम बुरे होते
मैं तड़प तड़प के यूँ न बिलखती
     गर तुम बुरे होते,,,,,
. .
. .
तुम इक बार तो याद करो
      मैं प्यार बार बार करुँगी
तुम इक बार तो इज़हार करो
        मै ज़िन्दगी कुर्बा     बार बार करुँगी
तुम कह दो       कि मेरे अपने हो
         मैं तुम पे जान निसार करुँगी
तुम थाम लो हाथ इक बार
      मैं सज़दे तुम्हारे
             बार बार करुँगी। ……… 

रविवार, 20 जुलाई 2014

और भी हैं....

 कैसे देखूं तेरी आँखों की नमी
मेरी आँखों में आँसू कुछ और भी हैं
....
तेरी मुस्कराहट का दर्द मैं कैसे समझूँ
मुझे मुस्कुराने का शौक नहीं है
 .......
 ढल जाता है दिन जब यादों की तरह
 जज़्बों की राख में दिखते , उसके निशाँ और भी हैं
.......
मुकम्मल नहीं होती फ़रियाद सभी की
मालूम है
पर
मन जलने के बाद भी
हसरतें
और भी हैं
हासिल नहीं है कुछ
रास्ता भी अंजाना है
ज़िन्दगी के सफर में
अभी इम्तिहाँ और भी हैं
और भी हैं। ……… 

सोमवार, 14 जुलाई 2014

( पत्थर तोड़ता एक बच्चा
जो जिंदगी से हैरान लगा मुझे …
की भावनाओं  को दर्शाती कुछ पंक्तियाँ ....  )

.......
कितनी अजीब है बात
न दर्द है ना राहत
न नफरत है ना चाहत
इक अजीब सी कसमसाहट
.............
भीतर जलती आग
और उसमे झुलसता मन
कच्चे कोयले की तरह
पकता रहा हर पल
धधकती ज्वाला के बीच
न कोई प्यास न कोई जलन
कभी अपनों का बेग़ानापन....
कभी खुद से ही.… जीने … की लगन
मुस्कुराता
गुनगुनाता
खिलखिलाता
कभी टूट कर चूर चूर
तो
कभी ……  कोहिनूर
मेरा ये बचपन
हाय मेरा बचपन ……   

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

लगता है ?


तू मेरे रूबरू हो न हो 
तेरी याद में बिताया वक़्त 
अपना सा गुजरता है 
तुझे महसूस करके आज भी 
होती हैं ऑंखें नम 
तेरा साया भी मुझसे 
लिपट के गुजरता है 
जो खामोशियाँ मेरे दिल की 
जुबाँ बन गई 
आज भी मन उन गूँजों के 
दरमियाँ गुजरता है 
कभी तन्हाई में सोच सको 
तो सोच लेना 
मेरे सिवा तुझे क्या कोई 
अपना सा लगता है ???????

उसके रूबरू

प्यार का एक अजूबा अहसास
जिसकी मौजूदगी
      बढ़ा देती है प्यास
एक दू सरे के लिए होता है
       मंज़र बारिश का
बूँदें जो रूह को
       छू जाती हैं
मन भीग सा जाता है
छटपटाती आँहें जी लेती हैं
                     जी भर कर
मिलने की इस घडी में
             रुक जाता है हरेक पल
फ़ना होने को जी करता है
                     उसके रूबरू
लुट जाने को दिल करता है
           उसके रूबरू
 

बुधवार, 18 जून 2014

आस

क्यूँ मन हो जाता आकुल व्याकुल
                    जब भूल चुकी मैं तुमको
क्यों  चुपके से तकती हैं आँखें
                    जब बिसर चुकी मैं तुमको
तुम ह्रदय में आये , संग मुस्काये
                        भूल गई मैं सब कुछ
कितने सपनों के ख्वाब सजाये
                   खो बैठी  मैं सुध बुध
जब जागी तो पाया ये मैंने
                हार गई मैं सब कुछ
है पाने की अब चाह नहीं ,
पर खोने को मन तैयार नहीं
कैसे कह दू नादाँ मन को
                      कि नहीं शेष है अब कुछ  

शनिवार, 24 मई 2014

चाहती हूँ

मै थक गई बहुत , अब सोना चाहती हूँ
सपनों के देश में जाकर , खोना चाहती हूँ
इक कन्धे  का सहारा मिले , तो रोना चाहती हूँ
अपने लिए भी इस जहाँ में , इक कोना चाहती हूँ
सुख और दुःख के छंण , खुद ही ढोना चाहती हूँ
आशा के बीज निराशा की धरती पर , बोना चाहती हूँ
कुछ दूर मेरे  हमराज़, मेरे हमसफ़र बनो
              नहीं तुमको मै क्यूंकि खोना चाहती हूँ
तुम्हारी ही चाहत में तुम्हारी होना चाहती हूँ
                                              हाँ होना चाहती हूँ

 

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

इक रोज़

इक रोज़

इक रोज़ हमने ये सोचा
      आज किसी को हँसाए
थोड़ी सी खुशियां लाकर
          किसी की मुस्कान बनाएँ
निकले जो  देखा, था सामने ,
                 एक बच्चा था खड़ा
 हमने पूछा उससे
           क्यों राह पे है पड़ा ?
वो बोला दीदी हम तो ,
           इस फूटपाथ के ही बच्चे हैं
दुनियादारी  से दूर
          अक्ल से कुछ कच्चे हैं
 जहां ले जाते हालात वहीँ पहुँच जाते हैं
जिस राह पर रोटी मिल जाए
उसी को अपना समझ, वहीं सो जाते हैं
आप यदि देंगी ....... दो रोटी का निवाला  
या  पहनने को कपड़ा
तो हम भी जी लेंगे कुछ और .... यहीं पर
 नहीं तो बढ़ चलेंगे…… क्योंकि छत है आकाश समस्त
और ऊपर वाले ने
           बनाया है हमे जीने के लिए अलमस्त अलमस्त



गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

मेरा अपना

मेरा अपना

इक टूटे किनारे की तरह -
                 जिसके पास है सब कुछ
                  हरियाली , ज़मीन और पानी का बहाव
                   पर सब बेजान , नितांत निर्जन
मैं बैठी उदास।
न हंसने की तमन्ना , न रोने की चाहत
न खोने का ग़म , न पाने की ख़ुशी
कहीं दूर अकेली मैं
               सिमट कर रह गई हूँ
जाने  कितना कुछ सोचा
             न जाने कितना कुछ पाया
                  अहसास की दुनिया में
नाकाम हुई तो बस
                  इंसानो की महफ़िल में
ये दर्द नहीं देता कोई तड़प
        यही तो एक तड़पन है
है प्यास ज़हर की मुझको
        पर ये अमृत का अपनापन है…कि वो मिलता है मुझे खुद से
मैं दूर कहीं  बैठी
           सबसे जुदा जुदा
हैं नज़दीक सभी मेरे
पर पास,  कोई नहीं मेरा
और जिसे चाहती मैं
                    वो दूर.… क़हीं  दूर
क्या है --- कोई मेरा ?

किसी रोज़

किसी रोज़

लफ्ज़ की देके शकल
न बदल दोस्त उन जज़्बातों को
वो तो सीने से निकल कर
          सीने में उतर जाते हैं

पढ़ के तो देख तू मेरे अल्फ़ाज़ों को
ये तो वो शेर हैं जो दिल में उतर जाते हैं

बात होती अगर उन आंसूओं की ही तो
हम छिपा लेते उन्हें दिल के किसी कोने में
बात तो ग़म की है जो सीने में छुपे रहते हैं
और चुपके से किसी रोज़
               बिखर जाते हैं
हमने वादा था किया अश्क न बहाने का
क्या करू दर्द का
            जो आँखों से उतर  आते हैं

पढ़ के तो देख तू मेरे अल्फ़ाज़ों को
ये तो वो शेर हैं जो दिल में उतर जाते हैं 

चाहत

चाहत 

उन भीगे अक्षरों से
            उन सूखे आंसूओं से
उस मन की व्याकुलता को
             उतारने की चाहत
ह्रदय की उस व्यथा को
                 है बांटने की चाहत

कहूँ क्या , कि शब्द अपरिपक्व
मगर मेरा प्रेम संपूर्ण,
         समर्पित
                  और परिपक्व .......
तुम्हारे हर दुःख को
      पा लेने की चाहत
रोम रोम में तुम्हारे
       समाने की चाहत

वो मेरी मुस्कराहट पर तुम्हारा हंसना
और मेरी भीगी आँखों को देख रोना
इसी अंदाज पे फ़िदा
                होने की चाहत
मेरी चाहत असीम अनंत
कब तक व्यक्त ही करुँगी
कि
बस अब तो है तेरी बाहों में आकर
तेरा क़र्ज़ उतारने की चाहत.......  

रविवार, 13 अप्रैल 2014

तुम

तुम 

ना बेवफा न बावफा , कुछ भी नहीं मेरे लिए 
बस एक शख्स हो तुम.……  
                   राहे मुसाफिर की तरह   

जिंदगी का हर पल वीरान है
बस एक तेरा साथ है
                  जो हंसाता है
बस एक तेरा मौन है
                       जो रुलाता है
मेरी भावनाओं के ये दो छोर
बस तेरे ही दम से हैं
वर्ना तो ज़िन्दगी का हर पल
                           नश्तर चुभाता है
तू बोले तो सरगम सी बजती है
तू चुप हो तो आंधी सी चलती है
तू क्या है जो मुझमे समाया है ……
ऐ मेरे हमसफ़र , तू क्या मेरा साया है ????………

याद

याद 

वो स्थिरता जो पाई थी मैंने
एक अर्से के बाद 
उसी धैर्य को खंडित कर 
अपनी स्मृति को जगा गया 
वो तेरी याद का झोंका 
मेरे मन को हिला गया 
वो बात जो एक याद बन चुकी थी 
वो प्यास जो एक आस बन चुकी थी 
उस ह्रदय की बुझी अग्नि को 
छूकर चला गया 
वो तेरी याद का झोंका 
मेरे ह्रदय को जला गया 
तेरी याद ले , आ गया 
मेरे मन को ले ,  चला गया ....... 

आस

आस 

शब्दों के टूटे हुए टुकड़े समेट  कर, हम चले थे 
स्वरों के आकाश नीचे, भावनाओं का जहां बसाने 
अकेले थे अपनी राह पर ,थोड़ा ठहरने की चाह पर 
मगर न कोई साथ था, ना कोई अासरा 
पर हम बढ़ चले थे दुनिया बनाने  … 
तमन्नाएँ बहुत थी, चाहत असीम , अनंत 
पर तुम न थे साथ हमारे 
हम तो मुस्कुरा कर तुम्हारी यादों के सपनो को 
मन के झूले में झुलाकर, चल पड़े थे राह पर 
तुम्हारे लिए खुशियों की सेज़ बिछाने 
मेरे तुम्हारे प्यार का जहां बसाने ………  

विश्वास

विश्वास 

तुझे ढूँढा दूर तक हमने
कभी रिश्तों में, कभी नातों में
कभी प्यार में, कभी दर्द में,
कभी वादों में , कभी इरादों में,
कभी बूँद में, कभी बारिश में,
कभी मुस्कुराहटों की साज़िश में
तुझे ढूँढा दूर तक हमने  .......
कभी प्यास में , कभी आस में,
कभी दूर कहीं, कभी पास में ,
कभी मन मचलता था मेरा
 कोमलता की आस में
कभी दिल पिघलता था मेरा
कठोरता की प्यास में
तुझे ढूँढा दूर तक हमने ……
मगर जानी हकीकत जब
निकल आँसू मेरे आये
कि जिसको खोजती थी मै
वो तो दम तोड़ चुका था
जिसे ढूँढा किये  अब तक
वो एक विश्वास ही तो था …… 
©Radhika Bhandari

They are all gone awy

From an old Diary.....

They are all gone away
there is nothing more to say
These lines when I heard 
made me remeber that world,
the creatures, the weather, 
the mountains, the sky, 
all green with love
with little birds to fly...
Those precious moments 
when I lived with you
I cried with you, I smiled with you;
The feelings we shared
the moments you cared
My sentiments arose
when I felt the fragrance
My joy bud turned to rose
when you showed your presence
I cried with happiness
satisfaction lying in my heart
feeling you are with me
in a new life to start......

©Radhika Bhandari

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

राजदुलारा

राजदुलारा

छोटा सा नन्हा सा, मेरी आँखों का तारा
खुशियों से भर देता मन ,मेरा राजदुलारा
आज उसकी बातों से आया आँखों में पानी
उल्लास  के अश्रुओं ने मेरी एक न मानी
हँसते हँसते रो पडी मैं …रोते रोते हंस दी
मेरी तो जीवन की कहानी उस ने पूरी कर दी
सिमट गई  इक पल में जैसे जीवन की पूरी कहानी
नैनो में चमके मेरे जैसे अमृत सा पानी
माँ बन कर महसूस हुआ मै बनी कहीं की रानी
उसकी मीठी बातों से होती मुझको हैरानी ……

©Radhika Bhandari



अपने

अपने 

अपनों की इस भीड़ में अपने ही  बेगाने हैं
किस से दिल की बात कहें , सब दिल के ही अफ़साने हैं
दिखते नहीं आँखों को नज़ारे जो सपनो में आये
इस हकीकत भरी दुनिया में तो , सब रिश्ते अनजाने  हैं
सपने बुन कर हमने  देखा , तिनके उड़ उड़ जाते हैं
उड़ते उड़ते हमने जाना हम भी तो परवाने हैं
जो हम चाहें हमे मिले वो, ऐसे पल कम आते हैं
गीतों की सरगम ना बने जो, हम ऐसे ही तराने हैं  
©Radhika Bhandari

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

प्रदूषण - कारण और निवारण

प्रदूषण -  कारण और निवारण

बढ़ती आबादी की सबसे विकट व ज्वलंत समस्या है प्रदूषण।  लोग आबाद हो रहे हैं और पर्यावरण बर्बाद।  दिन ब दिन बढ़ती जनसंख्या अपने साथ विस्तार कर रही है जल, वायु, ध्वनि व् भूमि प्रदूषण का। यहां तक की विज्ञान व सामाजिक विषयों में भी हर कक्षा , हर विद्यार्थी को इसकी घातकता समझाई जा रही है।किन्तु प्रश्न ये उठता है कि कितना समझते हैं और कितना पालन करते हैं  लोग।

विज्ञान ने जितनी तेजी से प्रगति करी है उस के परिणामों ने उतना ही गहरा दलदल तैयार किया  है मनुष्य के लिए।  वायु प्रदूषण की सोचें तो जहां तक  दृष्टि डालें धुंआ ही धुंआ , कारखाने और गाड़ियां।  जन जीवन इसी प्रदूषित वायु को अपने फेफड़ों तक जाने दे रहा है और जीवन के वर्षों को अल्प कर रहा है। यही प्रदूषित वायु बुजुर्गों , अजन्मे भ्रूणों , नवजात शिशुओं को अंदर से खोखला कर रही है।  वर्षा के मेघों से घुल मिल कर यही प्रदूषण अम्ल वर्षा में परिवर्तित हो रहा है जो की फसल के साथ साथ हमारी त्वचा के लिए भी हानिकारक है।
स्वच्छ वायु तो कदाचित पुस्तको के पाठ का हिस्सा बन कर ही रह गई है जिसे प्राप्त करना असंभव के समरूप लगता है।  इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाये तो कैसे ? क्यूंकि आबादी , वाहन और कारखाने निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं  और बढ़ रह है उनके द्वारा उत्पन्न धुंआ।  वायु स्वच्छ रहे भी तो किस प्रकार ?

फिर कानो की सोचे तो  ध्वनि तरंगें वातावरण को शोर गुल का मंच बनाती सी लगती हैं।  गाड़ियों के हॉर्न , लाउड स्पीकरों पर बजते संगीत , बढ़ते हुए कौवे - कबूतरों की कांव कांव व गुटर गूं बनती है ध्वनि प्रदूषण का कारण। इसी से बढ़ रही है बधिरता और साथ ही कुछ और सुनने का धैर्य भी।  इंसान आवागमन के रास्तों के घंटे दो घंटे की चिल्लम चिल्ली झेलने के बाद जब घर में प्रवेश करता है तो मुस्कराहट भी बोझिल लगती है और शिशु की किलकारी -एक कर्ण वेदन गूँज। कुछ पल स्वयं को शांत वातावरण में स्थिर करने के पश्चात ही वह स्वयं को गृहस्थ वातावरण के अनुकूल पाता  है।  ऐसी हो गई है मनः स्थिति।

और अन्य देखें तो हमारे पांच तत्वों में से दो तत्व - जल और भूमि भी विनाश के कगार की ओर अग्रसर हैं।  घरों व कारखानों का कचरा , अस्पतालों से फेंकी गई पट्टियां , दवाएं, प्लास्टर आदि इनसे मिल कर प्रदूषण फैला रही हैं और कारण बन रही हैं बाढ़ व अन्य प्राकृतिक आपदाओं का।  सरकार द्वारा कानून बनाये जाने के बावजूद खुले आम पॉलिथीन की थैलियों का उपयोग हो रहा है, हानिकारक रसायन  नदियों व समुद्र के पानी में उपस्थित प्राणी जगत पर भारी पड़ रहे हैं और बन रहे हैं उनके विनाश का कारण।

अगर इस स्थिति को अभी भी यहीं न रोक गया तो पर्यावरण कितने भयावह गर्त में डूब जायेगा इसकी कल्पना  भी असंभव है।  गाड़ियों की नियमित जांच परख ताकि वे विषैला धुंआ न छोड़ें , कारखानो का शहर से दूर स्थापीकरण , जनसँख्या विस्तार में रोक , दूषित तत्वों का नदी तालाबों में मिलान आदि कुछ ऐसे संभव उपाय हैं जो स्थिति की गंभीरता को विनाश की ओर बढ़ने से रोक सकते हैं।  साथ ही प्रयत्नशील होना पड़ेगा समस्त मानव जाती को इस प्रदूषण रुपी राक्षस के विनाश के लिए।  जागरूकता ज्ञान से आती है और ज्ञान विद्या दान से।  तो गुरु जान व विद्यार्थियों , जागो और संचार करो नई जागरण स्फूर्ति का अपने आस पास।  तभी संभव होगा नया कल - स्वच्छ, समृद्ध , वैभवशाली।


मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

तुम्हारे संग

तुम्हारे संग 

कितनी दूर तक चलने की चाहत है…… तुम्हारे संग
आसमाँ को छूने की चाहत है…… तुम्हारे संग
बादलों के उड़नखटोले में जहां को देखने की चाहत है ……तुम्हारे संग
गिरती हुई बूदों की टिपटिप कानो में भरने की चाहत है…… तुम्हारे संग
इंद्रधनुष के रंगों से जीवन को सजाने की चाहत है ……तुम्हारे संग
सागर की लहरों से खेलने की चाहत है…… तुम्हारे संग
गीली मिटटी में पैरों के निशाँ बनाने की चाहत है…… तुम्हारे संग
आँखों की बूदों में खुशियां समेटने की चाहत है…… तुम्हारे संग
बहारों के बगीचे में फूल खिलाने की चाहत है ……तुम्हारे संग
पत्तो की सरसराहट में मिल जाने की  चाहत है …… तुम्हारे संग
रूह को महका दे जो उस स्पर्श को पाने की चाहत है ……तुम्हारे संग
हर दिन एक एक पल का अहसास… उसे जीने की चाहत है ……तुम्हारे संग.… 
©Radhika Bhandari

ऐसे ही

ऐसे ही 
( Local Trains में भागते मनुष्य रुपी मशीनो के लिए )


( मासूम सा निरीह सा 
वो गम का गवाह था 
मचल के गोद में गिरा जो 
वो एक अश्क ही तो था )

ना धूप रहती है ना साया रहता है
जिंदगी हर पल बढ़ती जाती है
मन कसमसाया रहता है
काफिला हौसलों का
               कभी बुलंद
                     तो कभी पानी
सफ़र की दौड़ में ज़र्रा ज़र्रा सकपकाया  रहता है
रौशनी खुद की हो या मेहरे ताबा की
पाने की खोज में मन लपलपाया रहता है
 मुद्दत से मिला नहीं एक पल का  भी सुकून
ठहरने की चाह में दिल कसमसाया रहता है

©Radhika Bhandari


शनिवार, 29 मार्च 2014

सड़क दुर्घटनाएं-कारण और निवारण

सड़क दुर्घटनाएं-कारण और निवारण 

राह चलती जाती है, राहें मिलती जाती हैं
          मंज़िल का पता नहीं , राही का पता नहीं........

सब भागमभाग में व्यस्त हैं , व्यस्तता दिनचर्या का अहम् भाग बन गई है , स्त्री , पुरुष, बच्चे किसी के पास ठहरने के दो छण भी नहीं हैं और किसी हद तक इन्ही का परिणाम है - सड़क दुर्घटनाएं।

राह पर चलता हुआ इंसान मानो कोई कीट पतंगा सा बनकर रह गया है।  न पैदल सुरक्षित है , न दुपहिया और न ही चार पहिये के वाहन में ही। रात के अँधेरे में ट्रक चालक नशे में धुत होकर गाड़ियों पर चढ़कर अपनी मनमानी करते हुए कितने ही बहुमूल्य जीवनो का अंत कर देते हैं।  हालांकि समस्त बस - ट्रक समुदाय अमानवीय नहीं है परन्तु जितनी लापरवाही रात्रि की आकस्मिक दुर्घटनाओ में होती है उसका मुख्य भाग इसी श्रेणी में जाता है।  इनके अलावा सड़क पर खोये हुए लोग भी अपनी लापरवाही से दूसरे के जान माल के नुक्सान का कारण बनते हैं। अगर दुर्घटनाओ के कारणो का ब्यौरा देखे तो अक्सर ग़लती सामने वाले की होती है परन्तु भुगतता है सावधान चालक।  असावधानी हटी दुर्घटना घटी- परन्तु जो असावधानी पूर्वक ही चलाते हैं उनकी करतूत का फल भोगता है कौन…?

एक और कारण यह भी है कि आजकल युवा वर्ग का एक तिहाई भाग अध्ययन और अन्वेषण की बजाय सड़क पर गति की सीमा लांघने का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है… भूल गए हैं ये बच्चे कि कितने  अनमोल है वह अपने परिवार के लिए, अपने जनक जननी के लिए ( - हालांकि सामाजिक योगदान शून्य होता जा रहा है परन्तु फिर भी ) जीवन अमूल्य होता है और एक ही बार एक जीवन मिलता है।  ईश्वर प्रदत्त सबसे अनमोल उपहार है मनुष्य का जीवन क्यूंकि धरा को बनाने और मिटाने में सर्वाधिक योग दान भी उसी का ही है।  पशु पक्षियों की तरह नहीं जी सकते हम , क्योंकि बुद्धि का सर्वोत्तम उपयोग ईश्वर ने हमे ही प्रदान किया है।

सड़क पर होती दुर्घटनाएं अब अखबारों का अधिकतम भाग ले लेती हैं , नतीजतन समाचार पत्र के अंतिम पृष्ठ तक पहुँचते पहुँचते या तो हम निराशा से भर चुके होते हैं या फिर खेद से भरकर बीच में ही रख देते हैं उन पन्नो को मोड़कर रद्दी के लिए।

एक अन्य कारण यत्र -तत्र मकानो व् इमारतों का गिरना भी होता है सड़क पर चलते मनुष्यों की मौत का कारण।  विवादास्पद बहुमंज़िला इमारतें और कच्चे घूस खाये मकान, पुल आदि आपदा के आगमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  हास्यास्पद बात तो यह है कि जीवन की अनिश्चितता हमारी सरकार कुछ लाख रुपयों से खरीद लेती है ; जबकि वो अमूल्य जीवन कितने ही सपने संजोकर धराशाई हो जाता है और पीछे छोड़ जाता है अपनों के लिए शून्यता।

हमे देखना होगा कि गाड़ी  चालकों पर नियंत्रण की सीमा ट्रैफिक पुलिस किस तरह से बढ़ा सकती है , हालांकि हेलमेट की अनिवार्यता तथा मोबाइल पर चलाते हुए बातचीत न  करना एक आवश्यक नियम बना दिया गया है जुर्माने सहित, परन्तु कानून को ताक पर रखना इंसान की फितरत बन चुकी है। परन्तु आशाएं बलवान होती हैं और हम तो यही आशा करेंगे कि स्वनियंत्रण ही सबसे बड़ा समाधान है जिसके लिए प्रत्येक को जागरूक होना पडेगा और हर इंसान को दूसरे राही का मददगार भी बनना होगा आपात की स्थिती में , तभी दुर्घटनाएं कम होंगी और होंगी भी तो बहुमूल्य जीवन नष्ट ना होंगे। इस तरफ कदम बढ़ाएं हम सब…

©Radhika Bhandari







बुधवार, 26 मार्च 2014

तृष्णा

तृष्णा 

इच्छाएं अनंत होती हैं , उनकी कोई सीमा नहीं होती।  ऐसी ही कुछ सोच से प्रेरित होकर जीवन की दौड़ में भाग रहा है मनुष्य।  एक स्थान से दुसरे स्थान पर सदैव गतिमान - शारीरिक व मानसिक रूप से , कहीं भी रुकने को तैयार नहीं है । भाविष्य के सुख की कल्पना में वर्त्तमान की छोटी छोटी आनंदपूर्ण अनुभूतियों से वंचित वो किंचित अग्रसर  है अनबूझे भविष्य के जंजाल में।

हालांकि अस्थिरता के इस युग में यह दौड़ किसी हद तक सार्थक कही जा सकती  है  क्योंकि कल की भौतिक परिस्थितियां किस करवट बैठें यह तो कल्पना से परे है इस दौर में , परन्तु फिर भी यह एक कटु सत्य है कि  जीवन क्षणिक है; इस यथार्थता को स्वीकारते हुए मनुष्य को हर पल को गले लगाना चाहिए न कि  पसीने की बूँद की तरह वर्त्तमान को झटक कर भविष्य को अमृत बूँद मान लेने कि त्रुटि करनी चाहिए।

भागती हुई जिंदगी का एक कड़वा सच यह भी है कि नर व् नारी दोनों ही कल को सजाने में इतने व्यस्त हैं कि एक दूसरे के साथ बिताये हुए पल भावनाशून्य होकर समय की गाडी का पहिया बढ़ा रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगे की  पीढ़ी अर्थात हमारे बुज़ुर्ग एवं पीछे की पीढ़ी अर्थात हमारे नौनिहाल भी एकांत का सामना कर रहे है।  ये एकांत एक राक्षस की तरह अपना विकराल मुख खोले खड़ा है जिसमे चेतना समाहित होती जा रही है।  समय नहीं है किसी के पास , बस भागम भाग और होड़ - शेष यही है जीवन में।

किसी ने क्या खूब कहा है -" कुछ पल तो हमारे साथ चलो, हम अपनी कहानी कह देंगे ,जो बात अभी तक ना समझे , वो बात जुबानी कह  देंगे ".. …  कितना बड़ा सच है जीवन का इन पंक्तियों में , किन्तु प्रश्न यह है कि क्या वक़्त है कहने का कुछ ?? और क्या वक़्त है सुनने का भी  ?? इसी मृगतृष्णा से अपनी अभिलाषाओं की  क्षुधा तृप्त  करने में लगे हैं सब।   इसका असर आने वाली पीढ़ी पर यह पड़  रहा है कि वह निरंकुश हो रही है।  माँ का वात्सल्य लुप्त हो चला है और पिता  का अनुशासन भरा प्रेम- उलाहनाओं में परिवर्तित हो चुका है।

जीवन के चार आश्रमों में से एक था - गृहस्थ आश्रम ; परन्तु जीवन का वास्तविक सत्य यह है कि मनुष्य ने गृहस्थी में ही वानप्रस्थ को समेट  लिया है। आनंद जीवन में अपरिपक्व रूप से उपस्थित है  परन्तु परिपक्वता की  ओर बढ़ने की गर्मी से वंचित हम ही कर रहे है उसे।  धैर्य तत्परता में बदल चला है और आशाएं- आकांक्षाओं में।  इच्छाओं  के बादल छूने को उड़ चला है इंसान धरती को कहीं दूर पीछे छोड़ कर।

©Radhika Bhandari

सोमवार, 17 मार्च 2014

धूप

धूप 

कभी तपिश की तरह तपती
कभी सर्द हवाओं में जरुरत बनती  ...... ये धूप

कभी थके राहगीर  की बंदिश
तो कभी ठिठुरते बच्चे की ख्वाहिश ..... ये धूप

कभी चमचमाती सोने के माफ़िक
कभी बादलों  की ओट से दिखती ....... ये धूप

कभी जर्रे जर्रे पे जल जल के गिरती
कभी ओस की ठंडी बूंदों पे खिलती ..  ये धूप

कभी रेत करती सुनहरी सी झिलमिल
कभी दरिया की लहरें रुपहली सी करती..... ये धूप

कभी ज़लज़ले सी कहर ये बरपाती
कभी शीत हवाओं पर चादर सी पड़ती .. ये धूप

कहीं अगन  है , कहीं सुकून लेकिन
मेरे मन के बर्फीले घावों पर जमकर के बरसी... ये धूप
 ©Radhika Bhandari

 

गौरैया

गौरैया

एक छोटी सी गौरैया आकर मुझको रोज़ हँसाती है
चेहरे की पहली  मुस्कान सी बनकर
जब वो मेरे आँगन में आती है
दाना चुग कर चूँ चूँ करके वो थोडा इठलाती है
फुर्र करके फिर ,,,फिर वो उड़ती दाना लेकर जाती है
रोज़ सवेरे मुझसे उसका क्या रिश्ता हो जाता है
दाना ना रखा हो तो  क्यों, उसका मुँह बन जाता है
फुदक फुदक के इधर उधर वो शरमाती बलखाती है
ज्यों दाना रख दूँ ,,तो चुग के सर्र सर्र उड़ उड़ जाती है
मेरा उस से क्या रिश्ता है ये मुझको मालूम नहीं
पर उसके आने की  चाहत मन को छूकर जाती है
 छोटी सी गौरैया आकर मुझको रोज़ हँसाती है.…।

©Radhika Bhandari

कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी

कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी

रंग कौन लगाये मोहे
हौले हौले  चोरी चोरी
नैनों से  बतियाँ कर ले जो
अधरों में मुस्कान  हो थोरी
लाल हरे नीले रंगों से
सारी कौन भिगोये मोरी
        कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी
मीठी मीठी बातें बोले
और एकदम से बांह मरोरे
भर के अपने आलिंगन में
रंग दे तन की बगिया ये … कोरी
      कैसे खेलूँ कान्हा संग होरी।।।।।।

©Radhika Bhandari

रविवार, 9 मार्च 2014

ख्वाब

ख्वाब

मै अधूरा सा इक ख्वाब हूँ
जिसे जिन्दगी की तलाश है
जिसे रूप है मिला मगर
किन्ही खुश्बुओं की तलाश है ……

कभी आँख में बंधकर रहा
कभी मन से यूँ ही उतर गया
कभी इस घड़ी कभी उस घड़ी
मेरा कारवाँ सूना गुजर गया ……

कभी आएगा जो वक़्त मेरा
मै इक हकीकत बन जाऊँगा
गूँजता रहे जो जेहन में सबके
मै ऐसी धड़कन बन जाऊँगा ……      
©Radhika Bhandari

दो पंक्तियाँ ( group of two liners)

दो पंक्तियाँ ( multiples)

9. गुजरा बहुत है सफर , दर्दे बारिश भी सही
रस्ते बहुत थे लम्बे , मगर राह थी वही
इक था जूनून दिल में , इक हसरत भी थी पली
पाएंगे अपनी मंज़िल , और अकेले ही बढ़ चली

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8. तुम बोझ नहीं तुम नारी हो
तुम  भार नहीं धरती पर
बल्कि जन जन पर भारी हो

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7. आज मन में जो बात है बड़ी मुददत से
चाहा है रंगों को भरना हमने शिद्दत से
जमीं पे पाँव हैं मगर ये सोच भी ज़िंदा
कहीं आकाश मिले तो उडूं मै चाहत से
कहीं न भूली सफ़र ये तो राहे मंज़िल है
कभी हटेंगे नहीं मंज़िल ऐ इबादत से  …।

………
6. हर दर्द के पीछे कोई राज़ है
टूटते हुए दिल की इक आवाज़ है
गूंजती है सन्नाटों में हर तरफ से जो
नश्तर सा चुभाता इसका हरेक साज़ है ……

.......
5. दर्द को जुनूँ बनाकर हम बढ़ते गए
आसमाँ की जमीं पर बे-होश चढ़ते गए
सोचा कुछ ऐसा कि उसको रहम आ जाए
हर हाल में मौला के सितम सहते गए ……

..........
4. जिंदगी की डोर से जुड़ने की चाहत
मंजिल को ढूंढती
          तमन्नाएँ होकर आहत
कैसी है ये ज़िन्दगी की कसैली कड़वाहट
कोई तो इक पल दे हमको इक पल की राहत ……

…………
3. मौला की मिल्कियत में छाई है मस्ती
ईद की खुशियों से सराबोर है बस्ती
हम बहुत कहते नहीं
सिर्फ फ़रियाद है इतनी
     ना जलाओ आशियाँ सुहाना
        ज़िन्दगी तोहफा है उसका
            नहीं है कीमत इसकी सस्ती। …

………………।
2. पाँव तपते गए
धूप इतनी मिली
कि जमीं का अहसास ही न रहा
हम बढ़ते गए
वक़्त चलता रहा
कि ज़िन्दगी का अहसास ही न रहा …

………………………
1. गर याद न आये
तो इतना काम करो
इक बार तो बस मेरे
प्यार से इंकार करो

………
©Radhika Bhandari


यूँ ही……

यूँ ही……

कभी कभी पीछे मुड़ के देखूं तो
   ये अहसास झिंझोडे है ……
जो पल मैंने बिताये  तुम संग
   वे तो कितने थोड़े हैं ……
छोटी सी खुशियों  से लेकर
   बड़ी बड़ी मुस्कानो तक ……
तुमने कितने सुकूँ भरे पल
    मेरी ज़िन्दगी में जोड़े हैं ……
पर हर पल मुझको ये लगता
     मैं, तुमको क्या दे पाऊँगी
हर मंज़िल पे आकर
    जिसने राह में पाये रोड़े हैं ……


©Radhika Bhandari

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

परवरिश

 परवरिश 

"पहले हम आदतें बनाते हैं, फिर आदतें हमे बनाती हैं "

ऐसी ही विचारधारा से अगर हम बच्चों की परवरिश करें और बाल्यावस्था से ही उत्तम संस्कार प्रदान करें तो भविष्य को हम सुनहरी धरोहर दे पाएंगे।  शिशु के जन्म के साथ ही उसकी सीखने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और प्रारम्भ होते हैं जीवन के चारों आश्रम।  इस चक्र को सफलता से संपूर्ण कराने का दायित्व होता है माता पिता का।  माँ का वात्सल्य एवम पिता की सीख बच्चे को संपूर्ण बनाती हैं।  यदि हम सकारात्मक नज़रिये से बच्चों की परवरिश करेंगे तो जीवन के प्रति उनका रुख भी सकारात्मक ही होगा।  सर्वप्रथम हमे अपने बच्चे की मौलिक क्षमताओं का निरीक्षण करते हुए ही उस से अपेक्षाएं रखनी चाहिए। इस तर्क का अर्थ है कि न हम उन्हें एक दूसरे  से compare करें ना ही क्लास या रिश्तेदारों के बच्चों से।  सबकी अपनी अनूठी प्रतिभा होती है एवं अपना प्रारब्ध भी।  हम स्वयं को उनके व्यक्तित्व के विकास में ईश्वर का माध्यम मान कर चलें और बच्चों को भूत, वर्त्तमान व भविष्य का ज्ञान दॅ तो वह स्वयं ही विकसित होंगे परिपक्व रूप से, और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार ; क्यूंकि कोई मानसिक द्वन्द या कुंठा नहीं होगी कि अगला उनसे बेहतर है या नहीं।  वे सिर्फ अपना बेहतरीन प्रदर्शन देने में विश्वास करेंगे।  येही सत्य है, क्योंकि " survival of the fittest " की थ्योरी से हम सभी वाकिफ हैं और " fittest " वही होता है जिसे अपने परिवार से विरासत में ज्ञान व संस्कार दोनों मिले होते हैं।

हम ये मान कर चलें कि प्रत्येक व्यक्ति में अपनी रूचि के क्षेत्र में प्रथम आने की मौलिक क्षमताएं, विचार तथा सामर्थ्य  हैं।  जीवन में उत्साह सबसे बड़ी शक्ति  है और निराशा सबसे बड़ी कमजोरी।  जीवन का युद्ध हम प्रोत्साहित होकर जीत सकते हैं , हतोत्साहित होकर नहीं।  यहीं पर महत्त्वपूर्ण किरदार निभाता है- परिवार और परवरिश।  बच्चों की जीत पर भरपूर शाबाशी…….  और हार पर आगे बढ़ने की , स्वयं को और तैयार करने की …….  ऐसा मार्गदर्शन देना उनका कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्य को जो पूर्णरूपेण निभाते हैं उनके ही नौनिहाल युवावस्था में कर्म पथ पर अग्रसर होते हैं।  कुछ ऐसी सोच के साथ-

कि हम हिले तो गिर पड़ोगे ओ गगन चुम्बी शिखर
 नींव के पत्थर हैं हम, राह के पत्थर नहीं ……. 

आवश्यकता है इस मशीनी युग में अपने बच्चों को समय देने की, जब  "हम सिर्फ हम , और वे सिर्फ वे " हों।  एक परिवार जब साथ समय व्यतीत करता है तो मन में उपजी उलझने , विरोध, नकारात्मकता , आदि सभी ग्रंथियाँ , गाँठ और कुंठा बनने से पहले ही सुलझ कर उड़नछू हो जाती हैं।

रात्रि में सुनाई गई कहानियां बच्चों की मानसिकता को विस्तृत करती हैं क्योंकी उन्ही में  छिपी सीख से हम बच्चों को ज़िन्दगी से रुबरु कराते हैं।  अगर हम उन्हें बताएं की अब्राहम लिंकन ३२ बार चुनाव में असफल हुए और ३३वॆ बार में सफल होने पर वह USA  के जाने माने राष्ट्रपती बने तो वह भी सीखेंगे कि " नर हो ना निराश करो मन को " और बढ़ते रहने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति  प्रेम और कठिनाइयां आने पर उनसे जूझना , यह भी हमारा ही दायित्व है उन्हें समझाने का।  अगर हम अंधी अपेक्षाएं न रखकर बच्चों को श्रेष्ठ ज्ञान दे  व उन्हें उनकी काबिलियत के अनुरूप ही बढ़ने दे तो शायद इतनी आत्महत्याएं भी कम हो सकें।  "मानव जीवन ईश्वर का अमूल्य उपहार है स्वयं के लिए और   प्रत्येक अवस्था में हमे स्वयं पर यकीन करते हुए आगे चलना है" ये सीख जब हम बच्चो के मन में अंकुरित करेंगे तो , ऐसी सोच बच्चों को गलत राह पर जाने से रोक सकेगी।  हमारा उन पर विश्वास ---उनके जीने की चाह बनना  चाहिए।  ताकि कल को अगर वे हार से विचलित हों; तो जीवन से हार मानने की  बजाय वे हार को हराने का जज़बा ठान सकें।

हम उन्हें ये सिखाएं कि जब सूरज हो, तो रोशनी का भरपूर आनंद लें परन्तु तिमिर छाने पर दिए भी जलाने का प्रयत्न करें ।  हमारी सीख से उन्हें आगे बढ़ने का , श्रम करने का प्रोत्साहन मिले , ऐसी हमारी परवरिश होनी चाहिए।  बीज अगर स्वस्थ होगा तभी पौधा सशक्त खड़ा रह सकता है।

क्या कहते हैं ……. ?

©Radhika Bhandari







मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

My tribute to PRASOON JI

My tribute to PRASOON JI

मधुरता रुपी प्रसून जिस बगिया में खिल जाता है
     उस बाग़ की डाली डाली का रंग ही बदल जाता है
           रोज़ बनते नहीं सितारे आसमान में मगर
           जब बनता है तो  ....... इन जैसा ही बन जाता है…।

"तारे ज़मीन पर" फ़िल्म का गीत "मेरी माँ " जब भी मेरे कानो को स्पर्श करता है, लगता है मानो ह्रदय के समस्त तार झंकृत हो गए हों।  बच्चे के मनोभाव शब्दों में ऐसे पिरोये गए हैं जैसे सीपी में मोती।  उनके द्वारा लिखित गद्य हो या काव्य - भाषा की सरलता और भावों की अभिव्यक्ति से भरपूर होते हैं।

सोलह सितम्बर १९७१ को इनका जन्म अल्मोड़ा , उत्तराखंड में हुआ. इनके पिताजी श्री डी के जोशी पी सी एस अधिकारी थे जिनकी नियुक्ती बाद में State Education Service में  Additional Director के रूप में हुई।  इनकी माँ श्रीमती सुषमा जोशी जी भी All India Radio से लगभग तीस वर्षों से जुडी हुई हैं और साथ ही राजनैतिक विज्ञान कि लेक्चरर भी रहीं।  इतने सर्वगुण संपन्न माता पिता का पुत्र तोह कुशाग्र होना ही था।  अतः मात्र सत्रह वर्षा की उम्र में इनकी पुस्तक " मै  और वह " छपी।  और इसी के साथ प्रारम्भ हुआ प्रसून जी का काव्यात्मक सफ़र।

निपुण प्रसून अपने ज्ञान, अपनी कुशलता के फलस्वरूप दक्ष होते गए और उपरान्त दो पुस्तकें भी लिखीं। MBA करने के पश्चात Advertising से इन्होने अपना Career आरम्भ किया।

चिंतन और मन तब भी निरंतर चल रहे थे क्यूंकि जूनून की राह और भविष्य निर्माण का पथ - एक ना थे।  परन्तु फिर भी दोनों रास्तों को लेकर एक साथ चलने में इन्होने माहिरता दिखाई और O&M से लेकर McKann-Erickson के CEO तक के पद को गरिमापूर्ण रूप से सम्भाला है।

फिल्मों में इनका पदार्पण हुआ गीतकार के रूप में राजकुमार संतोषी की " लज्जा " से जिसके पश्चात आई 'हम तुम' और इसी कड़ी में ब्लैक , फना, रंग दे बसन्ती, तारे ज़मीन पर और डेल्ही-६  जैसे मोती भी जुड़े।  चाँद से की सिफारिश हो या बच्चे का डर  .......  या फिर हम तुम के ताने--- सभी में उनकी कार्य कुशलता ह्रदय को स्पर्श कर जाती है।  भौतिक वाद के युग में किंचित संवेदनशीलता को जागृत करने का उनका यह प्रयत्न सफल रहा है. बौद्धिक जन को निकृष्ट संवादों का नहीं वरन मानसिक उदगारों का सटीक चित्रण चाहिए, भद्रता और अभद्रता सिर्फ कपड़ों से नहीं,,, शब्दों से भी प्रकट होती है।  उच्च कोटि के कार्य स्वयं ही इतने सक्षम होते हैं कि उन्हें गली गली पहुंचाने की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन स्वर मुख से स्वयं दिल में उतर जाते है।

"Adguru of India " का खिताब जीत चुके प्रसून ने रिमझिम फुहार के रूप में " अब के सावन ऐसे बरसे " जैसा गीत भी हमे दिया।  मन के मंजीरे और डूबा डूबा रहता हूँ आँखों में तेरी भी इनकी कलम से ऐसे निकले हैं जैसे कल कल बहता निर्झर-झरना।

इसी तरह दरिया बहता रहे इनकी दक्षता का और सराबोर रहें हम इनकी कविताओं की बूंदों से।
ये मेरे भाव हैँ प्रसून जी के लिए  ....... आप की  टिप्पणियों का स्वागत है…

©Radhika Bhandari





     

होली के रंग

होली के रंग  

रंग बिरंगी आई होली
  खुशियों की बौछारें लेकर
     फागुन की है छटा निराली
       रंग बसन्ती छाये घर घर  .......

तुम भी खेलो हम भी खेलें
    तन मन रंग लेंगे हम सब
      भूल जाएँ हम शिकवे सारे
         पूरा हो  त्यौहार ये तब  .......

नील गगन सा नीला रंग हो
   या पत्ते सा हरा भरा
     चाहें हो मुस्कान गुलाबी
        सतरंगी लागे पूरी धरा  .......

इंद्रधनुष जब छा जायेगा
   रंगों की इस धूम धाम में
      जीवन खिल खिल जायेंगे तब
          धरती कि इस धूप छाँव में ....... 
©Radhika Bhandari

होली

होली

बसंती रंग छाये चहुँ ओर
जैसे वसुधा पर आई हो अभी भोर
तन मन सबके हो रहे भाव विभोर
कान्हा की अठखेलियों का है ज़ोर

टेसू पलाश के फूलो से परिपूर्ण वसुंधरा
सारा संसार हो गया है हरा भरा
ईश्वर का छाया है वरदान
राधिका के मन में बसे हैं कन्हैया भगवान

ब्रज की गलियों में उड़ते हैं अबीर गुलाल
नटखट गोप गोपिकाओं का है सारा धमाल
खेल रहे हैं नौजवान और सारे बाल गोपाल
ऐसी उमंग ऐसा उल्लास  ना देखा पूरे साल

ये टोली और वो टोली
भरी रंगों से पिचकारी है
तुमने हमको रंग लिया
अब तो हमारी बारी है.…………  होली है। ....... 

©Radhika Bhandari

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

तुम्हारे बगैर

तुम्हारे बगैर 

इक इक पल रुखसत किया मैंने ….... तुम्हारे बगैर
तूफ़ानो का सामना किया  मैंने ….... तुम्हारे बगैर
तमन्नाओं का समुंदर बनाया मैंने ….... तुम्हारे बगैर
ख़ास नहीं थी पर खुद को चाहा मैंने ….... तुम्हारे बगैर
एहसास दर्द का हर पल किया ….... तुम्हारे बगैर
तन्हा मुसाफिर की  तरह …....मंज़िल कि ओर चली .......  तुम्हारे बगैर
हर पल सुकूँ ये…… की तुम मिलोगे…मै चलती रही ….... तुम्हारे बगैर
और अब  जब तुम हो सामने ……मै  ही खुद से चल पड़ी अकेले  ……  सबसे अलग ….... तुम्हारे बगैर


©Radhika Bhandari

बुधवार, 15 जनवरी 2014

चाह

चाह 

कभी मन ये करता ..... कि सागर से खेलूँ
        कभी ऊंची ऊंची …घटाओं को छू लूं
कभी दिल मचलता पवन को पकड़ लूं
     कभी बरखा रानी की बूंदों को छू लूं
कभी  भाव उठते और आँखें बरसती
    कभी सैकड़ों उलझने आ अटकतीं
कभी मन हो चंचल     कभी ठहरा पानी
कभी प्रेम की सूनी अतृप्त कहानी
      है सारी ये बातें अब मन से मिटानी  
कहीं रेत को भी,,,,, क्या मिलता है पानी ???????

©Radhika Bhandari

इंकार

इंकार 

मै इश्वर का सौतेला बच्चा  हूँ .... 
झूठ बहुत है संसार में 
… पर मै जाने क्यूँ सच्चा हूँ 
हाँ मै इश्वर का बच्चा हूँ 
लाखों परिपक्व चालें फैली समाज में 
… पर मै जाने क्यूँ  कच्चा हूँ
 हाँ  मै इश्वर का बच्चा हूँ
बहुत लिखता है वो हरेक के नसीब में …
        पर मै छूट जाता हर बार 
झलक देख कर मेरी वो … 
       कर देता खुशियां देने से इंकार 
हर एक कर जाता जीवन की नदिया पार 
पर डूब जाती मेरी ही नाव.........  हर बार 
 सब के लिए उसने रखे अनेक उपहार 
         पर मुझे दिया अंधेरों का संसार 
मै जाने क्यूँ रखता आस अपार 
      और हो जाते हर बार मन के तार ,,, तार-तार 
अजब सी उलझन , नहीं दिल में कोई करार 
बस एक तमन्ना इस सौतेले को भी
          दे दो थोडा सा प्यार 
              थोडा सा प्यार  

©Radhika Bhandari

बुधवार, 8 जनवरी 2014

बहार

बारिश 

नन्ही सी धूप.....  कितनी खुशियां लाई
बारिश की बूंदों में हरियाली थी छाई
टुकुर टुकुर ताक रहा नन्हा सा मेंढक
खुशबु भरी हवाएं उसे बाहर जो ले आई ....

बहार 

बूंदों में भी एक साज़ है
मन को छू  जाए ऐसी आवाज़ है
बहारों में झूमे कलियाँ मुस्कुरा के
तिनके के दिल में भी कुछ राज़ है …
टिप टिप करके गिरती ....  इठलाती बलखाती
कभी पत्तों को छूती
कभी शाख से नैना मिलाती …
बूँद की  कहानी का ये आगाज़ है
सूरज कि किरण से जुड़ जाने को
मन में ना ऐतराज़ है …
इंद्रधनुषी रंगों का असर
लगता कुछ ख़ास है
इसलिए मन कुछ लिख बैठा … क्यूंकि दिल की भी तो.…  .इक  आवाज़ है !!!!!

©Radhika Bhandari



प्रेरणा

प्रेरणा 

नित्य नवीन आशाओं का सूरज …   जगमग जगमग करता है
प्रथम किरण का कण कण हमको …   प्रेरित करता चलता है
पवन है कहती उठो …   बहो.…    अब.… निर्मल मन से ध्यान रहे
मन गंगा सा पावन हो …  और ध्येय का तुमको ज्ञान रहे
भौतिक सुख को लक्ष्य बनाकर …पग पग आगे बढ़ता है…
आध्यात्मिक उत्थान के लिए…  क्या तू चिंता करता है ???
जीवन है अनमोल बड़ा यह.… समय व्यर्थ क्यूँ करता है। …
ध्यान रहे सम्मान यहाँ …  उगते सूरज को मिलता है।!!!!

ख़ुशी 

इक बूँद … कितनी आशाओं का इंद्रधनुष बना देती है …
हर मन के सात रंगों को जगा देती है.…
आओ हम सब इनमे सराबोर हो जाएँ …
क्यूंकि खुशियां ही खुशियों को पनपने का मौका देती हैं …

©Radhika Bhandari



रविवार, 5 जनवरी 2014

आम आदमी की कहानी

आम आदमी की कहानी 


तमन्नाओं के सागर में उम्मीदों की नदी जैसे मिलती है 
वैसे ही एक आम इंसान की ख्वाहिशे दुनिया से जुड़ती हैं 
दिन ब दिन बढ़ते घोटालो के साये 
कसमसाती जिंदगी को उलझनो से भर जाते हैं 
बत्तीस से अट्ठाईस तक घट जाए वो रोज़ाना की कमाई … आँखों में आंसू लाते है
और इरादे नाकाम मंज़िलो कि तरह.…  हौसले  बुलंद से...  चूर चूर हो जाते हैं !!!!!!!!

चिल्लर की कमी हम सबको बड़ा सताती है 
सिक्के सिक्के जमा  करने की वो कहानी याद आती है 
महँगाई की मार नश्तर बहुत चुभाती  है 
जिंदगी की जंग.…  आँखों को नम कर जाती है 


…कह्ते है किसी को  मुकम्मल जहां नहीं मिलता 
हर इंसा में खुद का अक्स नहीं मिलता। .... 

©Radhika Bhandari