गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

मन

मन

कितनी गहन पीड़ा कितनी गहरी उदासी
जल बिन तड़पत मीन बहुत थी प्यासी
सांझ भी थी धुंधलाने लगी
रात्रि की  ओर  गहराने लगी

आस निरास में परिवर्तित हो चली
कर्ण प्रिय आवाज़ भी हलकी हो चली
ह्रदय में थी जैसे बिजली सी गरजती
मन आकुल, भावनाएं अश्रुओ सी बरसती
बंधन सब यूँ क्यूँ टूट गए
साथी जो बनते थे अपने … क्यूँ छूट गए

क्यूँ पवित्रता यूँ मुरझा गई
पुष्प बनने से   पहले कली कुम्हला गई
क्यूँ मृत्यु विश्वास की थी द्वार पे हुई
बढे जब राधा के पाँव कान्हा की ओर
क्यूँ बनी सहभागिनी रुक्मिणी उनकी
कृष्ण थे जब राधा संग प्रेम विभोर। ....

©Radhika Bhandari



1 टिप्पणी:

  1. U surprise me with ur selection of words !!!! Can never imagine of a convent educated person having soo gud treasure of hindi words.
    How beautifully u convey the feelings through them.
    Awsum job...My words fall short to congratulate u on such brilliance.
    God bless Radhika...keep more & more & even more writing & sharing.

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