मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

ऐसे ही

ऐसे ही 
( Local Trains में भागते मनुष्य रुपी मशीनो के लिए )


( मासूम सा निरीह सा 
वो गम का गवाह था 
मचल के गोद में गिरा जो 
वो एक अश्क ही तो था )

ना धूप रहती है ना साया रहता है
जिंदगी हर पल बढ़ती जाती है
मन कसमसाया रहता है
काफिला हौसलों का
               कभी बुलंद
                     तो कभी पानी
सफ़र की दौड़ में ज़र्रा ज़र्रा सकपकाया  रहता है
रौशनी खुद की हो या मेहरे ताबा की
पाने की खोज में मन लपलपाया रहता है
 मुद्दत से मिला नहीं एक पल का  भी सुकून
ठहरने की चाह में दिल कसमसाया रहता है

©Radhika Bhandari


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