-- शत्रु --
शत्रु वो नहीं जो छलता है तुमको
जी छलनी करता है तुम्हारा....
शत्रु वो है
जिसे तुम अपना हृदय कहती हो
क्यूंकि वो ही दमन कराता तुम्हारी इच्छाओं का...
क्यूंकि वो ही बैरी बन तुम्हारी चुप्पी बन जाता...
नित नये तानो को सुनकर भी
वो ही तुम्हे बरबस रुलाता....
और सूखते जाते आंसूओं को
....वो बस ढाढस ही बंधाता....
तुम हर बार सुनती उसकी
क्यूंकि बंधा है वो किसी और से....
छदम धारी तुम्हारा शत्रु ..._तुम्हारा हृदय ....
तुम्हारा ही दमन करता जाता
क्यूंकि तुमने वरण किया उस पाषाण का...
जिसके लिए तुम सदैव झुकती जाती हो
कहो तो....
अपनी कामना को स्वप्न बना किस लोक मे सजाती हो ?
ये चक्र आखिर अपनी परिधि मे कब तक घूमेगा, बोलो तो ?
अपनी आकांक्षाओं की गठरी कभी खोलो तो!
बना लो इस चक्र को सुदर्शन अब, मिश्री की मुस्कान स्वयं के लिए भी घोलो तो!
अपनी आकांक्षाओं की गठरी कभी खोलो तो!
©राधिका भंडारी
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