बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

परवरिश

 परवरिश 

"पहले हम आदतें बनाते हैं, फिर आदतें हमे बनाती हैं "

ऐसी ही विचारधारा से अगर हम बच्चों की परवरिश करें और बाल्यावस्था से ही उत्तम संस्कार प्रदान करें तो भविष्य को हम सुनहरी धरोहर दे पाएंगे।  शिशु के जन्म के साथ ही उसकी सीखने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और प्रारम्भ होते हैं जीवन के चारों आश्रम।  इस चक्र को सफलता से संपूर्ण कराने का दायित्व होता है माता पिता का।  माँ का वात्सल्य एवम पिता की सीख बच्चे को संपूर्ण बनाती हैं।  यदि हम सकारात्मक नज़रिये से बच्चों की परवरिश करेंगे तो जीवन के प्रति उनका रुख भी सकारात्मक ही होगा।  सर्वप्रथम हमे अपने बच्चे की मौलिक क्षमताओं का निरीक्षण करते हुए ही उस से अपेक्षाएं रखनी चाहिए। इस तर्क का अर्थ है कि न हम उन्हें एक दूसरे  से compare करें ना ही क्लास या रिश्तेदारों के बच्चों से।  सबकी अपनी अनूठी प्रतिभा होती है एवं अपना प्रारब्ध भी।  हम स्वयं को उनके व्यक्तित्व के विकास में ईश्वर का माध्यम मान कर चलें और बच्चों को भूत, वर्त्तमान व भविष्य का ज्ञान दॅ तो वह स्वयं ही विकसित होंगे परिपक्व रूप से, और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार ; क्यूंकि कोई मानसिक द्वन्द या कुंठा नहीं होगी कि अगला उनसे बेहतर है या नहीं।  वे सिर्फ अपना बेहतरीन प्रदर्शन देने में विश्वास करेंगे।  येही सत्य है, क्योंकि " survival of the fittest " की थ्योरी से हम सभी वाकिफ हैं और " fittest " वही होता है जिसे अपने परिवार से विरासत में ज्ञान व संस्कार दोनों मिले होते हैं।

हम ये मान कर चलें कि प्रत्येक व्यक्ति में अपनी रूचि के क्षेत्र में प्रथम आने की मौलिक क्षमताएं, विचार तथा सामर्थ्य  हैं।  जीवन में उत्साह सबसे बड़ी शक्ति  है और निराशा सबसे बड़ी कमजोरी।  जीवन का युद्ध हम प्रोत्साहित होकर जीत सकते हैं , हतोत्साहित होकर नहीं।  यहीं पर महत्त्वपूर्ण किरदार निभाता है- परिवार और परवरिश।  बच्चों की जीत पर भरपूर शाबाशी…….  और हार पर आगे बढ़ने की , स्वयं को और तैयार करने की …….  ऐसा मार्गदर्शन देना उनका कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्य को जो पूर्णरूपेण निभाते हैं उनके ही नौनिहाल युवावस्था में कर्म पथ पर अग्रसर होते हैं।  कुछ ऐसी सोच के साथ-

कि हम हिले तो गिर पड़ोगे ओ गगन चुम्बी शिखर
 नींव के पत्थर हैं हम, राह के पत्थर नहीं ……. 

आवश्यकता है इस मशीनी युग में अपने बच्चों को समय देने की, जब  "हम सिर्फ हम , और वे सिर्फ वे " हों।  एक परिवार जब साथ समय व्यतीत करता है तो मन में उपजी उलझने , विरोध, नकारात्मकता , आदि सभी ग्रंथियाँ , गाँठ और कुंठा बनने से पहले ही सुलझ कर उड़नछू हो जाती हैं।

रात्रि में सुनाई गई कहानियां बच्चों की मानसिकता को विस्तृत करती हैं क्योंकी उन्ही में  छिपी सीख से हम बच्चों को ज़िन्दगी से रुबरु कराते हैं।  अगर हम उन्हें बताएं की अब्राहम लिंकन ३२ बार चुनाव में असफल हुए और ३३वॆ बार में सफल होने पर वह USA  के जाने माने राष्ट्रपती बने तो वह भी सीखेंगे कि " नर हो ना निराश करो मन को " और बढ़ते रहने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति  प्रेम और कठिनाइयां आने पर उनसे जूझना , यह भी हमारा ही दायित्व है उन्हें समझाने का।  अगर हम अंधी अपेक्षाएं न रखकर बच्चों को श्रेष्ठ ज्ञान दे  व उन्हें उनकी काबिलियत के अनुरूप ही बढ़ने दे तो शायद इतनी आत्महत्याएं भी कम हो सकें।  "मानव जीवन ईश्वर का अमूल्य उपहार है स्वयं के लिए और   प्रत्येक अवस्था में हमे स्वयं पर यकीन करते हुए आगे चलना है" ये सीख जब हम बच्चो के मन में अंकुरित करेंगे तो , ऐसी सोच बच्चों को गलत राह पर जाने से रोक सकेगी।  हमारा उन पर विश्वास ---उनके जीने की चाह बनना  चाहिए।  ताकि कल को अगर वे हार से विचलित हों; तो जीवन से हार मानने की  बजाय वे हार को हराने का जज़बा ठान सकें।

हम उन्हें ये सिखाएं कि जब सूरज हो, तो रोशनी का भरपूर आनंद लें परन्तु तिमिर छाने पर दिए भी जलाने का प्रयत्न करें ।  हमारी सीख से उन्हें आगे बढ़ने का , श्रम करने का प्रोत्साहन मिले , ऐसी हमारी परवरिश होनी चाहिए।  बीज अगर स्वस्थ होगा तभी पौधा सशक्त खड़ा रह सकता है।

क्या कहते हैं ……. ?

©Radhika Bhandari







मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

My tribute to PRASOON JI

My tribute to PRASOON JI

मधुरता रुपी प्रसून जिस बगिया में खिल जाता है
     उस बाग़ की डाली डाली का रंग ही बदल जाता है
           रोज़ बनते नहीं सितारे आसमान में मगर
           जब बनता है तो  ....... इन जैसा ही बन जाता है…।

"तारे ज़मीन पर" फ़िल्म का गीत "मेरी माँ " जब भी मेरे कानो को स्पर्श करता है, लगता है मानो ह्रदय के समस्त तार झंकृत हो गए हों।  बच्चे के मनोभाव शब्दों में ऐसे पिरोये गए हैं जैसे सीपी में मोती।  उनके द्वारा लिखित गद्य हो या काव्य - भाषा की सरलता और भावों की अभिव्यक्ति से भरपूर होते हैं।

सोलह सितम्बर १९७१ को इनका जन्म अल्मोड़ा , उत्तराखंड में हुआ. इनके पिताजी श्री डी के जोशी पी सी एस अधिकारी थे जिनकी नियुक्ती बाद में State Education Service में  Additional Director के रूप में हुई।  इनकी माँ श्रीमती सुषमा जोशी जी भी All India Radio से लगभग तीस वर्षों से जुडी हुई हैं और साथ ही राजनैतिक विज्ञान कि लेक्चरर भी रहीं।  इतने सर्वगुण संपन्न माता पिता का पुत्र तोह कुशाग्र होना ही था।  अतः मात्र सत्रह वर्षा की उम्र में इनकी पुस्तक " मै  और वह " छपी।  और इसी के साथ प्रारम्भ हुआ प्रसून जी का काव्यात्मक सफ़र।

निपुण प्रसून अपने ज्ञान, अपनी कुशलता के फलस्वरूप दक्ष होते गए और उपरान्त दो पुस्तकें भी लिखीं। MBA करने के पश्चात Advertising से इन्होने अपना Career आरम्भ किया।

चिंतन और मन तब भी निरंतर चल रहे थे क्यूंकि जूनून की राह और भविष्य निर्माण का पथ - एक ना थे।  परन्तु फिर भी दोनों रास्तों को लेकर एक साथ चलने में इन्होने माहिरता दिखाई और O&M से लेकर McKann-Erickson के CEO तक के पद को गरिमापूर्ण रूप से सम्भाला है।

फिल्मों में इनका पदार्पण हुआ गीतकार के रूप में राजकुमार संतोषी की " लज्जा " से जिसके पश्चात आई 'हम तुम' और इसी कड़ी में ब्लैक , फना, रंग दे बसन्ती, तारे ज़मीन पर और डेल्ही-६  जैसे मोती भी जुड़े।  चाँद से की सिफारिश हो या बच्चे का डर  .......  या फिर हम तुम के ताने--- सभी में उनकी कार्य कुशलता ह्रदय को स्पर्श कर जाती है।  भौतिक वाद के युग में किंचित संवेदनशीलता को जागृत करने का उनका यह प्रयत्न सफल रहा है. बौद्धिक जन को निकृष्ट संवादों का नहीं वरन मानसिक उदगारों का सटीक चित्रण चाहिए, भद्रता और अभद्रता सिर्फ कपड़ों से नहीं,,, शब्दों से भी प्रकट होती है।  उच्च कोटि के कार्य स्वयं ही इतने सक्षम होते हैं कि उन्हें गली गली पहुंचाने की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन स्वर मुख से स्वयं दिल में उतर जाते है।

"Adguru of India " का खिताब जीत चुके प्रसून ने रिमझिम फुहार के रूप में " अब के सावन ऐसे बरसे " जैसा गीत भी हमे दिया।  मन के मंजीरे और डूबा डूबा रहता हूँ आँखों में तेरी भी इनकी कलम से ऐसे निकले हैं जैसे कल कल बहता निर्झर-झरना।

इसी तरह दरिया बहता रहे इनकी दक्षता का और सराबोर रहें हम इनकी कविताओं की बूंदों से।
ये मेरे भाव हैँ प्रसून जी के लिए  ....... आप की  टिप्पणियों का स्वागत है…

©Radhika Bhandari





     

होली के रंग

होली के रंग  

रंग बिरंगी आई होली
  खुशियों की बौछारें लेकर
     फागुन की है छटा निराली
       रंग बसन्ती छाये घर घर  .......

तुम भी खेलो हम भी खेलें
    तन मन रंग लेंगे हम सब
      भूल जाएँ हम शिकवे सारे
         पूरा हो  त्यौहार ये तब  .......

नील गगन सा नीला रंग हो
   या पत्ते सा हरा भरा
     चाहें हो मुस्कान गुलाबी
        सतरंगी लागे पूरी धरा  .......

इंद्रधनुष जब छा जायेगा
   रंगों की इस धूम धाम में
      जीवन खिल खिल जायेंगे तब
          धरती कि इस धूप छाँव में ....... 
©Radhika Bhandari

होली

होली

बसंती रंग छाये चहुँ ओर
जैसे वसुधा पर आई हो अभी भोर
तन मन सबके हो रहे भाव विभोर
कान्हा की अठखेलियों का है ज़ोर

टेसू पलाश के फूलो से परिपूर्ण वसुंधरा
सारा संसार हो गया है हरा भरा
ईश्वर का छाया है वरदान
राधिका के मन में बसे हैं कन्हैया भगवान

ब्रज की गलियों में उड़ते हैं अबीर गुलाल
नटखट गोप गोपिकाओं का है सारा धमाल
खेल रहे हैं नौजवान और सारे बाल गोपाल
ऐसी उमंग ऐसा उल्लास  ना देखा पूरे साल

ये टोली और वो टोली
भरी रंगों से पिचकारी है
तुमने हमको रंग लिया
अब तो हमारी बारी है.…………  होली है। ....... 

©Radhika Bhandari

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

तुम्हारे बगैर

तुम्हारे बगैर 

इक इक पल रुखसत किया मैंने ….... तुम्हारे बगैर
तूफ़ानो का सामना किया  मैंने ….... तुम्हारे बगैर
तमन्नाओं का समुंदर बनाया मैंने ….... तुम्हारे बगैर
ख़ास नहीं थी पर खुद को चाहा मैंने ….... तुम्हारे बगैर
एहसास दर्द का हर पल किया ….... तुम्हारे बगैर
तन्हा मुसाफिर की  तरह …....मंज़िल कि ओर चली .......  तुम्हारे बगैर
हर पल सुकूँ ये…… की तुम मिलोगे…मै चलती रही ….... तुम्हारे बगैर
और अब  जब तुम हो सामने ……मै  ही खुद से चल पड़ी अकेले  ……  सबसे अलग ….... तुम्हारे बगैर


©Radhika Bhandari