परवरिश
"पहले हम आदतें बनाते हैं, फिर आदतें हमे बनाती हैं "
ऐसी ही विचारधारा से अगर हम बच्चों की परवरिश करें और बाल्यावस्था से ही उत्तम संस्कार प्रदान करें तो भविष्य को हम सुनहरी धरोहर दे पाएंगे। शिशु के जन्म के साथ ही उसकी सीखने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और प्रारम्भ होते हैं जीवन के चारों आश्रम। इस चक्र को सफलता से संपूर्ण कराने का दायित्व होता है माता पिता का। माँ का वात्सल्य एवम पिता की सीख बच्चे को संपूर्ण बनाती हैं। यदि हम सकारात्मक नज़रिये से बच्चों की परवरिश करेंगे तो जीवन के प्रति उनका रुख भी सकारात्मक ही होगा। सर्वप्रथम हमे अपने बच्चे की मौलिक क्षमताओं का निरीक्षण करते हुए ही उस से अपेक्षाएं रखनी चाहिए। इस तर्क का अर्थ है कि न हम उन्हें एक दूसरे से compare करें ना ही क्लास या रिश्तेदारों के बच्चों से। सबकी अपनी अनूठी प्रतिभा होती है एवं अपना प्रारब्ध भी। हम स्वयं को उनके व्यक्तित्व के विकास में ईश्वर का माध्यम मान कर चलें और बच्चों को भूत, वर्त्तमान व भविष्य का ज्ञान दॅ तो वह स्वयं ही विकसित होंगे परिपक्व रूप से, और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार ; क्यूंकि कोई मानसिक द्वन्द या कुंठा नहीं होगी कि अगला उनसे बेहतर है या नहीं। वे सिर्फ अपना बेहतरीन प्रदर्शन देने में विश्वास करेंगे। येही सत्य है, क्योंकि " survival of the fittest " की थ्योरी से हम सभी वाकिफ हैं और " fittest " वही होता है जिसे अपने परिवार से विरासत में ज्ञान व संस्कार दोनों मिले होते हैं।
हम ये मान कर चलें कि प्रत्येक व्यक्ति में अपनी रूचि के क्षेत्र में प्रथम आने की मौलिक क्षमताएं, विचार तथा सामर्थ्य हैं। जीवन में उत्साह सबसे बड़ी शक्ति है और निराशा सबसे बड़ी कमजोरी। जीवन का युद्ध हम प्रोत्साहित होकर जीत सकते हैं , हतोत्साहित होकर नहीं। यहीं पर महत्त्वपूर्ण किरदार निभाता है- परिवार और परवरिश। बच्चों की जीत पर भरपूर शाबाशी……. और हार पर आगे बढ़ने की , स्वयं को और तैयार करने की ……. ऐसा मार्गदर्शन देना उनका कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्य को जो पूर्णरूपेण निभाते हैं उनके ही नौनिहाल युवावस्था में कर्म पथ पर अग्रसर होते हैं। कुछ ऐसी सोच के साथ-
कि हम हिले तो गिर पड़ोगे ओ गगन चुम्बी शिखर
नींव के पत्थर हैं हम, राह के पत्थर नहीं …….
आवश्यकता है इस मशीनी युग में अपने बच्चों को समय देने की, जब "हम सिर्फ हम , और वे सिर्फ वे " हों। एक परिवार जब साथ समय व्यतीत करता है तो मन में उपजी उलझने , विरोध, नकारात्मकता , आदि सभी ग्रंथियाँ , गाँठ और कुंठा बनने से पहले ही सुलझ कर उड़नछू हो जाती हैं।
रात्रि में सुनाई गई कहानियां बच्चों की मानसिकता को विस्तृत करती हैं क्योंकी उन्ही में छिपी सीख से हम बच्चों को ज़िन्दगी से रुबरु कराते हैं। अगर हम उन्हें बताएं की अब्राहम लिंकन ३२ बार चुनाव में असफल हुए और ३३वॆ बार में सफल होने पर वह USA के जाने माने राष्ट्रपती बने तो वह भी सीखेंगे कि " नर हो ना निराश करो मन को " और बढ़ते रहने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति प्रेम और कठिनाइयां आने पर उनसे जूझना , यह भी हमारा ही दायित्व है उन्हें समझाने का। अगर हम अंधी अपेक्षाएं न रखकर बच्चों को श्रेष्ठ ज्ञान दे व उन्हें उनकी काबिलियत के अनुरूप ही बढ़ने दे तो शायद इतनी आत्महत्याएं भी कम हो सकें। "मानव जीवन ईश्वर का अमूल्य उपहार है स्वयं के लिए और प्रत्येक अवस्था में हमे स्वयं पर यकीन करते हुए आगे चलना है" ये सीख जब हम बच्चो के मन में अंकुरित करेंगे तो , ऐसी सोच बच्चों को गलत राह पर जाने से रोक सकेगी। हमारा उन पर विश्वास ---उनके जीने की चाह बनना चाहिए। ताकि कल को अगर वे हार से विचलित हों; तो जीवन से हार मानने की बजाय वे हार को हराने का जज़बा ठान सकें।
हम उन्हें ये सिखाएं कि जब सूरज हो, तो रोशनी का भरपूर आनंद लें परन्तु तिमिर छाने पर दिए भी जलाने का प्रयत्न करें । हमारी सीख से उन्हें आगे बढ़ने का , श्रम करने का प्रोत्साहन मिले , ऐसी हमारी परवरिश होनी चाहिए। बीज अगर स्वस्थ होगा तभी पौधा सशक्त खड़ा रह सकता है।
क्या कहते हैं ……. ?
"पहले हम आदतें बनाते हैं, फिर आदतें हमे बनाती हैं "
ऐसी ही विचारधारा से अगर हम बच्चों की परवरिश करें और बाल्यावस्था से ही उत्तम संस्कार प्रदान करें तो भविष्य को हम सुनहरी धरोहर दे पाएंगे। शिशु के जन्म के साथ ही उसकी सीखने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है और प्रारम्भ होते हैं जीवन के चारों आश्रम। इस चक्र को सफलता से संपूर्ण कराने का दायित्व होता है माता पिता का। माँ का वात्सल्य एवम पिता की सीख बच्चे को संपूर्ण बनाती हैं। यदि हम सकारात्मक नज़रिये से बच्चों की परवरिश करेंगे तो जीवन के प्रति उनका रुख भी सकारात्मक ही होगा। सर्वप्रथम हमे अपने बच्चे की मौलिक क्षमताओं का निरीक्षण करते हुए ही उस से अपेक्षाएं रखनी चाहिए। इस तर्क का अर्थ है कि न हम उन्हें एक दूसरे से compare करें ना ही क्लास या रिश्तेदारों के बच्चों से। सबकी अपनी अनूठी प्रतिभा होती है एवं अपना प्रारब्ध भी। हम स्वयं को उनके व्यक्तित्व के विकास में ईश्वर का माध्यम मान कर चलें और बच्चों को भूत, वर्त्तमान व भविष्य का ज्ञान दॅ तो वह स्वयं ही विकसित होंगे परिपक्व रूप से, और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार ; क्यूंकि कोई मानसिक द्वन्द या कुंठा नहीं होगी कि अगला उनसे बेहतर है या नहीं। वे सिर्फ अपना बेहतरीन प्रदर्शन देने में विश्वास करेंगे। येही सत्य है, क्योंकि " survival of the fittest " की थ्योरी से हम सभी वाकिफ हैं और " fittest " वही होता है जिसे अपने परिवार से विरासत में ज्ञान व संस्कार दोनों मिले होते हैं।
हम ये मान कर चलें कि प्रत्येक व्यक्ति में अपनी रूचि के क्षेत्र में प्रथम आने की मौलिक क्षमताएं, विचार तथा सामर्थ्य हैं। जीवन में उत्साह सबसे बड़ी शक्ति है और निराशा सबसे बड़ी कमजोरी। जीवन का युद्ध हम प्रोत्साहित होकर जीत सकते हैं , हतोत्साहित होकर नहीं। यहीं पर महत्त्वपूर्ण किरदार निभाता है- परिवार और परवरिश। बच्चों की जीत पर भरपूर शाबाशी……. और हार पर आगे बढ़ने की , स्वयं को और तैयार करने की ……. ऐसा मार्गदर्शन देना उनका कर्त्तव्य है और इस कर्त्तव्य को जो पूर्णरूपेण निभाते हैं उनके ही नौनिहाल युवावस्था में कर्म पथ पर अग्रसर होते हैं। कुछ ऐसी सोच के साथ-
कि हम हिले तो गिर पड़ोगे ओ गगन चुम्बी शिखर
नींव के पत्थर हैं हम, राह के पत्थर नहीं …….
आवश्यकता है इस मशीनी युग में अपने बच्चों को समय देने की, जब "हम सिर्फ हम , और वे सिर्फ वे " हों। एक परिवार जब साथ समय व्यतीत करता है तो मन में उपजी उलझने , विरोध, नकारात्मकता , आदि सभी ग्रंथियाँ , गाँठ और कुंठा बनने से पहले ही सुलझ कर उड़नछू हो जाती हैं।
रात्रि में सुनाई गई कहानियां बच्चों की मानसिकता को विस्तृत करती हैं क्योंकी उन्ही में छिपी सीख से हम बच्चों को ज़िन्दगी से रुबरु कराते हैं। अगर हम उन्हें बताएं की अब्राहम लिंकन ३२ बार चुनाव में असफल हुए और ३३वॆ बार में सफल होने पर वह USA के जाने माने राष्ट्रपती बने तो वह भी सीखेंगे कि " नर हो ना निराश करो मन को " और बढ़ते रहने की चेष्टा करेंगे। जीवन के प्रति प्रेम और कठिनाइयां आने पर उनसे जूझना , यह भी हमारा ही दायित्व है उन्हें समझाने का। अगर हम अंधी अपेक्षाएं न रखकर बच्चों को श्रेष्ठ ज्ञान दे व उन्हें उनकी काबिलियत के अनुरूप ही बढ़ने दे तो शायद इतनी आत्महत्याएं भी कम हो सकें। "मानव जीवन ईश्वर का अमूल्य उपहार है स्वयं के लिए और प्रत्येक अवस्था में हमे स्वयं पर यकीन करते हुए आगे चलना है" ये सीख जब हम बच्चो के मन में अंकुरित करेंगे तो , ऐसी सोच बच्चों को गलत राह पर जाने से रोक सकेगी। हमारा उन पर विश्वास ---उनके जीने की चाह बनना चाहिए। ताकि कल को अगर वे हार से विचलित हों; तो जीवन से हार मानने की बजाय वे हार को हराने का जज़बा ठान सकें।
हम उन्हें ये सिखाएं कि जब सूरज हो, तो रोशनी का भरपूर आनंद लें परन्तु तिमिर छाने पर दिए भी जलाने का प्रयत्न करें । हमारी सीख से उन्हें आगे बढ़ने का , श्रम करने का प्रोत्साहन मिले , ऐसी हमारी परवरिश होनी चाहिए। बीज अगर स्वस्थ होगा तभी पौधा सशक्त खड़ा रह सकता है।
क्या कहते हैं ……. ?
©Radhika Bhandari