बुधवार, 26 मार्च 2014

तृष्णा

तृष्णा 

इच्छाएं अनंत होती हैं , उनकी कोई सीमा नहीं होती।  ऐसी ही कुछ सोच से प्रेरित होकर जीवन की दौड़ में भाग रहा है मनुष्य।  एक स्थान से दुसरे स्थान पर सदैव गतिमान - शारीरिक व मानसिक रूप से , कहीं भी रुकने को तैयार नहीं है । भाविष्य के सुख की कल्पना में वर्त्तमान की छोटी छोटी आनंदपूर्ण अनुभूतियों से वंचित वो किंचित अग्रसर  है अनबूझे भविष्य के जंजाल में।

हालांकि अस्थिरता के इस युग में यह दौड़ किसी हद तक सार्थक कही जा सकती  है  क्योंकि कल की भौतिक परिस्थितियां किस करवट बैठें यह तो कल्पना से परे है इस दौर में , परन्तु फिर भी यह एक कटु सत्य है कि  जीवन क्षणिक है; इस यथार्थता को स्वीकारते हुए मनुष्य को हर पल को गले लगाना चाहिए न कि  पसीने की बूँद की तरह वर्त्तमान को झटक कर भविष्य को अमृत बूँद मान लेने कि त्रुटि करनी चाहिए।

भागती हुई जिंदगी का एक कड़वा सच यह भी है कि नर व् नारी दोनों ही कल को सजाने में इतने व्यस्त हैं कि एक दूसरे के साथ बिताये हुए पल भावनाशून्य होकर समय की गाडी का पहिया बढ़ा रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि आगे की  पीढ़ी अर्थात हमारे बुज़ुर्ग एवं पीछे की पीढ़ी अर्थात हमारे नौनिहाल भी एकांत का सामना कर रहे है।  ये एकांत एक राक्षस की तरह अपना विकराल मुख खोले खड़ा है जिसमे चेतना समाहित होती जा रही है।  समय नहीं है किसी के पास , बस भागम भाग और होड़ - शेष यही है जीवन में।

किसी ने क्या खूब कहा है -" कुछ पल तो हमारे साथ चलो, हम अपनी कहानी कह देंगे ,जो बात अभी तक ना समझे , वो बात जुबानी कह  देंगे ".. …  कितना बड़ा सच है जीवन का इन पंक्तियों में , किन्तु प्रश्न यह है कि क्या वक़्त है कहने का कुछ ?? और क्या वक़्त है सुनने का भी  ?? इसी मृगतृष्णा से अपनी अभिलाषाओं की  क्षुधा तृप्त  करने में लगे हैं सब।   इसका असर आने वाली पीढ़ी पर यह पड़  रहा है कि वह निरंकुश हो रही है।  माँ का वात्सल्य लुप्त हो चला है और पिता  का अनुशासन भरा प्रेम- उलाहनाओं में परिवर्तित हो चुका है।

जीवन के चार आश्रमों में से एक था - गृहस्थ आश्रम ; परन्तु जीवन का वास्तविक सत्य यह है कि मनुष्य ने गृहस्थी में ही वानप्रस्थ को समेट  लिया है। आनंद जीवन में अपरिपक्व रूप से उपस्थित है  परन्तु परिपक्वता की  ओर बढ़ने की गर्मी से वंचित हम ही कर रहे है उसे।  धैर्य तत्परता में बदल चला है और आशाएं- आकांक्षाओं में।  इच्छाओं  के बादल छूने को उड़ चला है इंसान धरती को कहीं दूर पीछे छोड़ कर।

©Radhika Bhandari

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