शुक्रवार, 29 मई 2015

सपनो को कोई पकड़ पाता

काश इन सपनो को
कोई पकड़ पाता
अपने दिल के दरो दिवार पर
बखूबी सजाता
शान से उन पर
वो नज़रें फिराता
एकबारगी ही सही
 अपनी किस्मत सराहता
चुन लेता उनमे से
जो ख्वाहिश में आता
बगीचे के फूलों
की तरह अपनाता
मुकद्दर को लेकिन
नहीं जश्न भाता
कभी पल सुनहरे
कभी है सताता
कभी तपती रेतों में
दे देता दरिया
कभी छाँव के पेड़
भी है गिराता
चलो अब तो खोलो
तमन्ना का खाता
भरो उनमे जी भर के
खुशियों की गाथा 

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