कोरोना काल
कैसी विचित्र है स्थिति ये आई
जीवन का सत्य समक्ष ले आई
प्रत्येक कण कण में व्याप्त हो गया भय
जिजिविषा जीवित करते है आई
परिस्थितियाँ जो थी कभी अनुकूल
विपरीत हो भयभीत करने लगी
मन कभी अस्थिर, तो कभी स्थिर
सुषुप्तावस्था लुप्त हो जगने लगी
मानवता ने देखे रुप इंसानों के अनेक
कही शर्मसार लोभ लोलुपता के दानव से
कहीं दैवीय रूप में प्रगटे मनुष्य नेक
फिर भी कुछ ऐसा ना हुआ जो कोरोना दे घुटने टेक
प्रकृति का यह विचित्र रुप संशोधन के हेतु आया
'निराली और विचित्र है जगत शक्ति की माया
सभ्यता स्थापित हो पुनः, यह जन जन को सिखलाया
अन्यथा जीवनी शक्ति की लुप्त हो जायेगी छाया
प्राकृत्य ने है ऐसा खेल रचाया
राधिका भंडारी
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